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गणधर
सार्द्धशतकम् ।
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चाहिये, इसी समय आप जैन सिद्धान्त वाचना ग्रहणार्थ अभयदेवसूरिजीके पास पाटन आये, बड़े प्रेमसे वांचना दी। आप भी पर्याप्त प्रभावित हुए, और चैत्यवास विषतुल्य भाषित होने लगा । आपने अभयदेवसूरि के पास विधिमार्ग अंगीकार किया, दीक्षा ली, आपको जैनादि षट् दर्शनों का ज्ञान था ही पर ज्योतिष में भी आपकी विशेष प्रगति थी। ऐसा आपके एक ज्योतिषज्ञ के साथ विवाद से विदित होता है। आपने चित्तोड़ में चंडिका देवी को प्रतिबोध दिया, वहां विधि चैत्य की स्थापना कर अपना संघपट्टक महावीर चैत्यालय में खुदवाया । यहां आपको चैत्यवासीयों ने अत्यन्त कष्ट दिया । ५८० लठैतों मारने के लिये आये थे. पर जहां सत्य का सूर्य चमकता है वहां पर मिथ्यावादी - उल्लू कहां ठहर सकते हैं ? । आपने अपनी समस्या पूर्ति के बलसे धाराधीश नरवर्म्म को प्रसन्न कर चित्तौड़ के जिन मंदिर के लिये दो लक्ष मंडपीका दान दिलवाईं । वागड़ देश में १०००० मनुष्यों को जैनी बनाये, आपने मरोट में उपदेशमाला की १ गाथा पर छ मास विवेचन किया पर फिर भी पूर्ण न हुआ, इसीसे प्रकांड विद्वत्ता और महोच्च वाग्मिता का सूचन होता है। नागोर में आपका विशेष प्रभाव था। आपका भक्त श्रावक पद्मानंद भी विद्वान् ग्रन्थकार था, सं० ११६७ कार्तिक वदि १२ को आपका देहावसान चित्तौड़ में ही हुआ । आचार्यवर्य जैसे क्रियापात्र थे, वैसे ही उत्तम विद्वान् थे। सूक्ष्मार्थ विचारसार - पड्शीति- कर्मग्रन्थ-संघपट्टक- पौषधविधि प्रकरण-धर्मशिक्षा-द्वादश कुलक- प्रश्नोत्तरशतक - प्रतिक्रमण सामाचारी- अष्टसप्ततिका शृंगारशतक-स्वप्नाष्टक विचार-धर्मशिक्षा- पिंड विशुद्धि प्रकरण भिन्न २ प्रकार के चित्र काव्यादि स्तोत्र निर्माण कर आपने अपनी प्रकांड विद्वत्ता ज्ञापित की है। आपकी रचनाएँ बड़ी मृदु कर्णमधुर है, संस्कृत
४९. प्रस्तुतः कृति अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, अनेक विद्वानो ने इस पर कई वृत्तियें निर्माण कर इसे गौरवान्वित किया, सर्वप्राय बनाया। विक्रमकी सत्रहवीं शताब्दि में शुभविजय संग्रहीत " प्रश्नोत्तररत्नाकर " पृ. ४ में सोमविजयगणिने शंका उठाई है कि " पिण्डविशुद्धिनिर्माता जिनवल्लभगणिखरतर थे या अन्य ? उत्तर दिया गया ये खरतर गच्छके संभावित नहीं होते, " यह उत्तर कितना असत्यता से परिपूर्ण है और देनेवाले भी मृषावाद के
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भूमिका ।
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