SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गच्छायार पइएणयं मासे मासे उ जा अज्जा, एगमित्येण पारए । कलहइ गिहत्थासाहि, सव्वं तीए निरस्थयं ॥१३४॥ जो आर्यका एक एक मास की तपस्या कर रही है और पारणा भी केवल ग्रास मात्र से करती है यदि वह आर्यका दृसरों से ऐसे कलह करती है, जैसे गृहस्थ असभ्य शब्दों में किया करते हैं तो उस आर्यका की सब तपस्या निष्फल हो जाती है। टिप्पणी-इन उपरोक्त दो गाथाओं में जो विषय वर्णन किया गया है वह साधुओं के सम्बन्ध में भी समान रूप से लागू होता है जैसे कि जो साधु जिनोक्त मार्ग की आज्ञा का उल्लंघन करके वीतरागमार्ग से भटका हुआ है वह साध्वी के लिये संसार-परिभ्रमण का कारण हो सकता है इस लिये आर्यका साधुओं से धार्मिक वार्तालाप के अतिरिक्त अन्य संभाषण न करें। इसी प्रकार जो साधु तपस्या आदि शुभ कार्य तो करता है परन्तु हीन वचन एवं तुच्छ बचनों को बोलते हुए, क्लेश से बाज नहीं आता, उस के तपस्या आदि शुभ कार्य निष्फल होते हैं ।।। इस गाथा के साथ साध्वीस्वरूपनिरूपण नाम का तीसरा अधिकार समाप्त होता है इस अधिकार में जो साध्वियों के सम्बन्ध में कहा गया है वह उपरोक्त विधि से यथास्थान साधुओं के सम्बन्ध में भी मासे मासे तु या आर्या, एकसिक्थेन पारयेत् । कलहयेत् गृहस्थभाषाभिः, सर्व तस्याः निरर्थकम् ॥१३४।। "मासे मासे" "क्रियामध्येवकाले पञ्चमी च' ।। २।२।११० ॥ इति सूत्रेण सप्तमी विभक्तिः ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020333
Book TitleGacchayar Painnayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokmuni
PublisherRamjidas Kishorchand Jain
Publication Year1951
Total Pages64
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gacchachar
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy