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गच्छायार पइएणय अत्थेगे गोयमा ! पाणी, जे उम्मग्गपइदिए । गच्छंमि संवसित्ताणं, भमई भवपरंपरं ॥२॥ __ हे गोतम ! उन्मार्गगामी गच्छ में रह कर उस के फलस्वरूप कई एक प्राणी संचारचक्र में घूम रहे हैं। ___ अतः संसार से मुक्त अर्थात् जन्मजरामरण, शारोरिक एवं मानसिक कष्टों से बचने के लिये सन्मार्गगानी गच्छ में ही रहना चाहिये । ऐसे गच्छ में रहने से क्या लाभ होता है इसका अब वर्णन करते हैंबामद-जाम-दिण-पक्रवं, मासं संवच्छंरपि वा । संमग्गपटिठए गच्छे, संवसमाणस्स गोयमा ! ॥३॥
सूत्रेण दशशब्दस्य दकारस्य लुक् , 'श-पोः सः' ||८१।२६० ।। हे०॥ इति सूत्रेण शकारस्य सकारः तथा 'लुक्' ।।८।१०।। हे० ।। इति सूत्रेण सकारे अकारस्य लुक ; 'ट-अ-गण-नो व्यजने' ।८।१।२५।। इति सूत्रेण नकारस्य अनुस्वारः ।। ति असिंद ।।
"नमंसियं" शब्दे तकारस्य "गच्छायार" शब्दे चकारस्य च 'क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक' ।।८।१।१७७ । इति सूत्रेण लुक् , 'अवों याति:' ।।८१।१८०।। इति सूत्रेण यकारः ।। १ ।।
सन्त्येके गौतम ! प्राणिनः, ये उन्मार्गप्रतिष्ठिो । गच्छे संवस्य, भ्रान्त भवपरम्पराम ॥२॥ मामार्द्ध-याम-दिन-पक्षं, मासं संवत्सरमपि वा । सन्मार्गप्रस्थिते गच्छे, संवसमानस्य गोतम ! ॥ ३ ।।
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