SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साधुस्वरूपनिरूपण जिनशासन में नहीं है फिर भी दीक्षा पर्याय के नाश होने का अवसर अथवा आतङ्क आदि उत्कृष्ट कारण आ पड़ने पर जैसे कि श्री वृहत्कल्पसूत्र के छ? उद्देश्य में वर्णन आया है इस प्रकार के किसी बहुत बड़े कारण के उपस्थित होने पर, जो गीतार्थ मुनि आगम के रहस्य को समज्ञने वाले हां परमार्थदर्शी हों वेह। आगमविधि अनुसार जहां ऐसा करते हों वह गच्छ ही वास्तव में गच्छ है।। मूलगुणेहिं विमुक्क, बहुगुणकलियं पि लद्धिसंपन्नम् । उत्तमकुले वि जायं, निद्धाडिज्जइ तयं गच्छम् ।।८७॥ ___ अनेकगुणों से युक्त तथा लन्धिसम्पन्न चाहे किसी उत्तमकुल में उत्पन्न हुआ ही क्यों न हो उस के मूलगुणों से भ्रष्ट हो जाने पर यदि वह गच्छ से बाहर कर दिया जाता है तो वह गच्छ वास्तविक गच्छ है॥ जत्थ हिरएणसुवरणे, धणधण्णे कंसतंबफलिहाणं । सयणाण आसणाण य, झुसिराणं चेव परिमोगो ||८८|| जत्थ य वारडियाणं, तचडिआणं च नह य परिभोगो। मत्सुक्किलवत्थं, का मेरा तत्थ गच्छम्मि ? ||८६ ॥ मूलगुणैर्मुक्त, बहुगुणकलितमपि लब्धिसम्पन्नम् । उत्तमकुलेऽपि जातं, निर्घाटयत्ति सको गच्छः ।। ८७ ।। यत्र हिरण्यसुवर्णयोः, धनधान्ययोः कांस्यताम्रस्फटिकानाम् । शयनानामासनानाञ्च, शुपिराणाञ्चैव परिभोगः ॥ ८ ॥ यत्र च रक्तवस्त्राणां, नीलपीतादिरङ्गितवस्त्राणं चैव परिभोगः । मुक्त्वा शुक्लवस्त्रं, का मर्यादा तत्र गच्छे ? || ८६ | For Private And Personal Use Only
SR No.020333
Book TitleGacchayar Painnayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokmuni
PublisherRamjidas Kishorchand Jain
Publication Year1951
Total Pages64
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gacchachar
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy