SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गन्छायार पइएणयं ___ करने योग्य अथवा न करने योग्य कार्यों के सम्बन्ध में गुरुजनों के कठोर शब्दों के कहने पर भी जो शिष्यसमुदाय 'तहत्ति' ऐसा कह कर अपने गुरुजनों का आदर सम्मान करता है, है गौतम ! वास्तव में ऐसे साधुसमुदाय का नाम ही गच्छ है ।। दूरझियपत्ताइसु ममाए निप्पिहे सरीरे वि । जायमजायाहारे वयालीसेसणाकुसले ॥ ५७ ॥ वस्त्रपात्रादि की ममता से रहित जो शरीर की आसक्ति से रहित है तथा आहार का अवसर लगने पर अथवा न लगने पर जो आहार के बयालीस दोषों को टालने में समर्थ है ॥ तंपि न रूवरसत्थं, न य वण्णत्थं न चेव दप्पत्थं । संजमभरवहणत्थं, अक्खोवगं व वहणत्थम् ॥ ५८ ॥ उपरोक्त शुद्ध एवं निर्दोष आहार भी, रूप तथा रस के लिये नहीं और न हि शरीर की कान्ति बढ़ाने तथा इन्द्रियों को पुष्ट करने के लिये, अपितु गाड़ी की धुरा के उपांग (बांगने) के समान चारित्र के भार को वहन करने के लिये ही ग्रहण करता है । दूरोज्झितपात्रादिषु ममत्वो निःस्पृहः शरीरेऽपि ।, जाताजाताहारे द्विचत्वारिंशदेषणाकुशलः ॥ ५७ ॥ तमपि न रूपरसार्थं , न च वर्णार्थं न चैव दार्थम् । संयमभारवहनार्थ , अक्षोपाङ्गमिव वहनार्थम् ॥ ५ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020333
Book TitleGacchayar Painnayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokmuni
PublisherRamjidas Kishorchand Jain
Publication Year1951
Total Pages64
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gacchachar
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy