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श्रीदे.
चैत्यश्री
धर्म० संघाचारविधौ ॥४१३॥
अचिरेण गमी विलयं सीयंपिव तरणिकिरणहयं ॥ ४५ ॥ इय सोउ पमुइयमणा मंतिनरिंदा पवनगिहिधम्मा। तं गुरुगिरं पडि-|
आकारा|च्छंति सीसवीसंतकरकमला ॥४६॥ अह पच्छागयनियसिन्न पत्थिओ मंतिसंजुओ राया। केवलिकमकमलमलं पणमिय पत्तो सन-I | धिकारः
यरंमि ॥४७॥ मंतिनिवा य खवेउं पुवज्जियतिक्खदुक्खरिछोलिं । पूर्यति सया देवे वंदंतिय हेउसुविसुद्धं ।। ४८ ॥ चिर पालिय | गिहिधम्म अणसणघणचूरिउग्गबहुकम्मा। अच्चुअकप्पंमि सुरा ते जाया फुरियतेयभरा ।। ४९ ।। तयणु विदेहे नरजंम लहिय नयहेउसहसपरिसुद्धं । संमं जिणिंदधम्म काउ लहिस्संति सिवसंमं ॥ ५० ॥इत्यवेत्य भवदत्तमंत्रिणः, श्रीसुदर्शननृपस्य वृत्तकम् । व्योमरत्नमितहेतुसुंदरं, सज्जनाः कुरुत चैत्यवंदनम् ॥५१॥ इति भवदत्तमंत्रिसुदर्शननृपकथा । इति प्ररूपितं 'बारहेऊ य'त्ति अष्टादशं द्वारम् , इदानीं 'सोलस आकार'त्ति एकोनविंशतितमं द्वारमाविष्कुर्वन्नाहअन्नत्थुआइ बारस आगारा एवमाइआ चउरो। अगणि१ पणि दिच्छिदण२ योहिकखोभा य३ डको ४ य॥४४॥
अन्नत्थुत्ति वचनात् अन्नत्थ ऊससिएणं १ आदिशब्दान्नीससिएणं इत्यादिग्रहो यावत् दिद्विसंचालेहिंति, एतदर्थः-अन्नत्थ | य वावारे काउस्सग्गं करेमि इय जोगो। ऊसासाईहिंतो करेमि नो अन्नवावारं ॥ १॥ इय पंचमीइ अत्थे तइया अहवा उसास| माईहिं । हुञ्ज अभग्गो अविराहिओ य मह काउसग्गोत्ति ॥ २ ॥ तत्थ-ऊससियं सासगहो १ नीससियं सासमोयणं २ पयडा। | खास ३ खुय ४ जंभ ५ उड्डय ६ वायनिसग्गो अहोवाओ ॥३॥ भमलीइ अकम्हा उ सभंतमहिदसणं निवडणं च । पित्तोदयाउ | मुच्छा विचेयण भमणरहियं ॥४॥ सुहुमा लक्खालक्खा रोमुकंपाइअंगसंचारा १० खेले कफाइ अंतो ११ दिट्ठीइ निमेसमाईया १२ ॥५॥ ऊसासाइनिरोहे मरणाई तेण सुहुमओससई । पवणमसगाइरक्खणहेउं खासाइसु य हत्थो ॥६॥ उड्डुयवायनिस- ॥४१३||
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