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Shri Mah
श्रीदे० चैत्य० श्री
धर्म० संघा
चारविधौ
॥१६४॥
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| कुलकोडीसु भमिय कवि जिओ । इह लहइ माणुसतं सुदेससुकुलाइसुपवित्तं ॥५०॥ तत्थवि कुतित्थबहुले लोए दुलहा विसुद्ध - धम्मसुई । जीइ अहिंसगधम्मं पडिवज्जिय तरइ भवजलहिं ॥ ५१|| धम्मेसुचि दुलहा तत्तरुई मिच्छत्तसेवए लोए । जं नेयाउयमग्गा बहवे भस्संति मूढमई || ५२ ॥ सदहणेऽविहु धम्मस्स फासया दुल्लहा उकाएण । कामगुणमुच्छिया जं विरमंति जिया न पावाओ | ॥५३॥ जो उ मणुयत्तपत्तो सुद्धं धम्मं सुणित्तु सद्दहिउं । जहविहिणा उ अणुदुइ सो इह लहु घुणइ कम्मरयं ॥ ५४ ॥ ता धम्माणुट्ठाणे करेह जत्तं सया विहिपहाणे । धारेह सुद्धभावं भविआ ! वज्जेह वितहभावं ।। ५५ ।। जं विडियमणुट्टाणे वितत्तं कुणइ दंसणं समलं । समले तंमि तवनियमवयगुणा हुंति न बहुफला ||५६ ॥ किंच धम्मगयं वितहत्तं थोवंपि विसं व हणइ सुहनिचयं । बड़ेइ दोसजालं जणेइ बहुऽणत्थवित्थारं ।। ५७ ।। उक्तं च- "धर्मानुष्ठानवैतथ्यात्, प्रत्यपायो महान् भवेत् । रौद्रदुःखौघजननो, दुष्प्रयुक्तादिवौषधात् ||५८||" अह पुच्छर कणयसिरी भयवं ! किं मे पुराकयं कम्मं । पत्तामि जेणऽणत्थं इय पियवहबंधुविहराई ||२९|| भइ मुणी पुण भद्दे ! धायइसंडस्स पुवभरहंमि । संखउरनामगामे सिरिदत्ता इत्थिया आसी |||६० ॥ मा आजम्मदरिद्दा जीव काऊण परगिहे कम्मं । रंधणखंडणपीसणगिहलिंपणवारिवहणाई ।। ६१ ।। परगिहकम्मअभावा कयाइ सा कट्टकारणेग गया। सिरिपव्वयंमि सेले सच्चजसं नियइ तत्थ मुणिं ।। ६२ ।। तो सा चिंत जाणामि जम्मभिगमप्पणो सचरिएहिं । न कयं सुकयं पुढं तेण इहं दुक्खिया जाया || ६३|| सइदुकम्मनिदड्डाइ मे न थोवंपि इह कयं सुकयं । ता परभवेऽवि मज्झं दुहमेव हि केवलं होही || ६४ || आजम्मउयरपूरणचिंताइ मयाइ मंदभग्गाए । भवकोडिदुल्लहं हारियं हहा माणुसं जम्म |||६५|| ता अञ्जवि मुणिमेयं नमिउं सोउं च एयउवएसं । सहलीकरेमि जम्मं निएवि तह एयमुहकमलं ।। ६६ ।। इय चिंतिय
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श्रीदत्ता
कथा
॥१६४॥