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________________ Shri Mahn Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रीदें चैत्य श्रीधर्म०संघाचारविधौ ॥१४७॥ Acharya Shri Kait i Gyanmandir किंपिन नटुं विसुद्धमग्गं भयाहि भूनाह !। दूरं गयावि लच्छी अणुसरह नरं नयपवनं ॥७४॥ अह जायकम्म IIIनरवाहनविवरो अणुतावपरो निवो चरणलग्गो। विनवइ गुरुं भयवं! कह पावा मुञ्चिहमिमाओ? ॥७५।। "भणइ गुरू जिणमुणिवंदणेण पावमिह नासइ जमुत्तं । भत्तीइ जिणवराणं खिजंति पुरा कया कम्मा ॥७६॥ तथा-अभिगमणवंदणनमंसणेण पडिपुच्छणेण साहणं । चिरसंचिअंपि कम्मं खणेण विरलत्तणमुवेइ ।। ७७ ॥ जिणवरपणिहाणाओ जायइ जीवाण सयलसुहहेऊ। सुहगुरुजोगो मग्गाणुसारिया भवविरागित्तं ॥८॥ तह गुरुजिणबहुमाणो इह परलोए अहिट्ठफलसिद्धी । लोयाविरुद्धकरणं परोववयारित्तणाईवि ॥७९॥" अह निवई नमिय गुरुं गयमिच्छतो गहेवि सम्मत्तं । जिणमुणिपणिहाणपरो गमइ दिणे दुकयनिंदाए ।।८०॥ अह अणुपत्ते सबले नमिय गुरुं भणइ पहु! पसीय कया । वइदिसिपुरीइ एजह इय वुत्तु निवो गओ सपुरं ।।८१॥ पिया दंसणाइ देवीइ पुच्छिओ हथिहरणमाईयं । जिणधम्मलाभपेरंतमाह निवई नियचरित्तं ॥८२|| तत्तो सुइसंमत्तो मुणिपयभत्तो जिणचणुज्जुत्तो। कयधम्मियबहुमाणो पालइ रजं सुपणिहाणो ॥८३॥" श्रीमत्सुधर्मसूर्यागमने चोद्यानपालविज्ञप्ते । सर्वा भूभर्ता विनिर्ययौ मुनिपते तुम् ॥८४॥ दयितासुतादिसहितो भक्त्या प्रणिपत्य तत्पदद्वंद्वम् । विहितांजलिः सविनयं विज्ञपयामास मरिमसौ ॥८५॥ अचिराय प्रासीदत न किं स्वचरणारविंदवंदनतः। अस्माकमुपरि भगवन् ! मुनिः-गादं व्यग्रा नृपाः स्म वयम् ॥ ८६ ॥ राजा-त्यकसमारंभाणां भवतामपि सर्वसंगविरतानाम् । किं व्याकुलत्वमेतद्? मुनिः-वसुधाधव! विद्धि युद्धकृतम् ।।८७॥ राजा-अहह समशत्रुमित्र! क्षेत्रादिविरोधकारणलवित्र ! । प्रशमधन गतयोधन ! किमिति तवायोधनविधानम् ! ॥८८॥ महदाश्चर्य भगवन् ! कथय कथं केन कलिरजनि वोऽत्र । गुरुरथ जगौ गवेश्वर! शृणु तदिह गुरुः प्रबंधोऽयम् ॥८९॥ तथाहि-श्रुत्वैकदा गतं मां प्रम- ॥१४७।। For Private And Personal
SR No.020306
Book TitleDevvandanbhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendrasuri, Dharmkirtisuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1938
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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