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श्रीदे० चैत्य०श्रीधर्म० संघाचारविधौ
॥ १२४ ॥
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| वीरजिणं नमि ते नियंति निसुगंति पहुवयणं ||४|| पुच्छर गोयमसामी के विहिणा पहू पढिय सुत्तं । धम्मागुट्टाणमिणं कीरह तित्थमि ? कह पहू ||५|| विग्धक्खय मंगलत्थं हिअट्ठआरद्धपारगमणत्थं । पढममिह पंचमंगलसुत्तमहिज्जिज्ज तो इरियं ॥ ६ ॥ गोयम ! जेण न कप्पर काउं इरियाइ अपडिकंताए । चिइवंदणा किंचिवि तप्फलसायाभिलासीणं ॥ ७ ॥ जं गमणागमणाई णालोइय अपडिकमिय पाएण। न हवइ मणएगत्तं तयभावे किह सुधम्मफलं १ ||८|| जइया गमागमाई आलोइयनिंदिऊण गरहित्ता । हा दुट्ठुम्हेहिं कयं मिच्छादुक्कडमिय भणित्ता ||९|| तह उस्सग्गेणं तयणुरुवपच्छित्तमणुचरित्ताणं । जो आवहियं चिह वंदनाइट्टिज उवउत्तो ॥ १०॥ तइया उ परमएगग्गमणसमाही हविज तस्स तओ । इट्ठफलसंपया तो पुर्वि इरियं पडिकमिआ ॥ ११ ॥ अविय-देवच्चणं पवित्तं करेइ जद काउ बज्झतणुसुद्धिं । भावच्चपि हुआ तह इरियाए विमलचिते ||१२|| तो चिइवंदणसामाइयाइ सुतं अहिज सेसंपि । देवच्चि अधम्मश्च्चिअरउत्ति धम्मी पसिद्धमिणं ।। १३ ।। एवंति भणिय गोयमपहू पहुं नमइ तेऽवि तह सड्ढे । वंदिय जिणं नियत्ते भणेइ संखो निरखकखो || १४ || भो भो उवक्खडावह विउलं असणाइ तं च जिमिऊण । विहरिस्सा मो गिव्हित्तु पक्खियं पोसहं संमं ।। १५ ।। तेसुवि तहेव भणिउं सहाणगएमु चिंतए संखो। नो खलु कप्पइ तं मज्झ विउलमसणाइयं श्रुतं ॥ १६ ॥ किंतु विमुकालंकारसत्थकुसुमस्स बंभयारिस्स । एगागिस्स उ पोसहसा लाए पोसहं चित्तुं ॥ १७ ॥ पुच्छित्तु उप्पल तो संखो गिण्हेइ पोसहं इत्तो । ते मिलिअ सावया लहु असणाइ उचक्खडाविंति || १८ || जंपति य भो भद्दा ! संखेणुतं जहा जिमेऊण | बिहरिस्तामो गिण्डित्तु पक्खियं पोसहं अम्हे ।। १९ ।। ता किं अअवि संखो न एइ अह आइ पुक्खली सड्ढो । जा णेमि तं निमंतिय ता तुम्भे ठाह सुविसत्था ||२०|| इय भणिय संखगेहे सो पत्तो तं च उप्पला इंतं । दद अन्डर
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पुष्कलीश्रावकः
॥ १२४ ॥