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श्रीदे०
चैत्यश्रीधर्म संघा चारविधौ ॥१०१।
न विरमेइ ॥४॥ तत्थ कियारसमाए चंपाइ पुरीइ पालगो हुत्था। राया जियारिनामा सिवदत्तो तस्स वरमंती ।।५।। तस्स य | वसंतसेणा भजा सा सुयअभावदुक्खेण । परिचत्तभोयणा अवरवासरे मंतिणा भणिया ॥६॥ दइए ! तुह किं बाहइ जं अहुणा भोयणंपि ते चत्तं । सा आह सुयाभावं विणा न वाहइ किमवि अन्नं ॥७॥ जओ-जलमज्झे किर पडिया घडिया दीसइ खणंतरं जाव । तणयविहूणं तु कुलं न दीसए थेवकालंपि ॥८॥ तदुहदुहिओ मंती भणइ पिए ! पुरिसयारसझं जं । मइसझं वा कजंत साहइ नणु कहवि पुरिसो ॥९॥ किमिह पुण दइवसज्झे कीरइ मा तहवि काहिसि विसायं । कुलदेवि आराहिय साहिस्समिमं लहुं जेण ॥१०॥ तीइवि तह पडिवन्ने मंती गंतूण भूवइसमीवे । कहिउं घरवित्तंतं दसरतं निवमणुनविउं ॥ ११ ॥ नियगिहविवितदेसे मुक्कालंकारभोयणविहाणो । कुससत्थराधिरूढो मंती सुमरेइ कुलदेविं ॥१२॥ अह सचिवसत्तमस्स य सत्तं सत्तमदिणंमि संपत्ते । देवी परिक्खिउमणा उवदंसह भीसणे बहवे ॥१३।। दहें तमक्खुहियमणं पञ्चक्खीहोउ हरिसिया देवी। सचिववरं वरसु वरं जंपइ अह सोऽवि पचाह ॥१४॥ देवि ! अविनायंपिव कह वयसि ममं वरेसु वरमिटुं। देवी-वक्खित्तचित्तयाए, मंत्री को पुण वक्खेवहेऊ ते ॥१५॥ देवी-संताणत्थी तं वच्छ ! बच्छयं बंछसे तुहं सो उ । दिनो पबड़माणो करिस्सइ अमुद्ददारिदं ॥ १६ ॥ तुह सत्तरंजियाए कि सुयमन्नं व देमि एयस्स । बक्खित्तमणाइ मए वरसु वर जंपिओसि तुमं ॥१७॥ इय सुच्चा भयभीओ मंती चिंतइ अहो दरिदमिहं। असुयवहो तणुदाहो भुक्खामारो अ दुभिक्खो ।। १८ ।। ता मह किमुचियमहुणत्ति चिंतिरो देवयाइ वरसु वरं । इय पुणरुत्तो सहसत्ति भणइ सो देसु मह पुत्तं ॥१९॥ दिन्नुत्ति मा करिजसु संदेहं किंतु वच्छ! सविसेसं । धम्ममि | पयट्टिजसु इय भणिय तिरोहिया देवी ॥२०॥ मंतीवि देविमच्चिय भुत्तो तो कहइ तुह पिए! होही । देवी दिनो पुत्तो होउमिणं
॥११॥
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