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ANUAGAR
ग धृगः सबही उच्चारै । बालक मिलि कंकर मारें ॥३॥ | फिरि देशते दो कढ़वाई । धन लक्ष्मी सब लुटवाई ॥
भूपतिनै दुहाई फिराई । सोतो सब देशन माहीं ॥४॥ जाकों जो बैठन देहौ । ताकी भुसखाल भरैहौं ॥ इस विधिसों जानो सोई । ताकों तहँ दंड सु होई ॥४१॥ | अब रहै बननके माहीं। तहँ तो अब भृमन कराहीं॥ | मुनि घातक सोय कहाबै । काहू ठौर वैठ नहिं पावै ॥४२॥ जहँ जाय तहां दुख होई । कर कंकर मारत सोई॥
ऐसे भृमतो बन माहीं । छिन साता ताको नाहीं ॥४३॥ । तृष छुधा सहै अधिकारी । सो जानो बहु दुख भारी ॥ 1 परनाम रुद्र जो करिके । जाने छोड़े पान दुख भरिक ॥४४॥
फिरि छटमे नर्क जु माहीं । अवतार लयो सो ताहीं ॥
२०१८
VAAAGAVANAGAND
BAvivaBAGAMANAVARAvi
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