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दान
कथा
VASANA
AAVAAVAVVANAGA
एक दिन पुनि सेठि जानो चढो महल सुखकार जू ॥ सो सांझ समए करत संध्या जपत उर नवकार जू ।। बज्रपात जु तापै टूटो प्रान गए ततकाल जू ॥ ७ ॥ तहँ शुद्ध मन करि प्रान छूटे जपत उर नवकार जू । प्रथमहिं स्वरगके मध्य जानौ लयो सुर अवतार जू॥ तातें सुनो नर नारि सबही जपौ उर नवकार जू। जाके जपत दुख पाप छूटें होत भविदधि पार जू ॥ ८० ।।
चौपाई। कोलाहल जु नगरमैं भयो । सबरो नगर तहां जुरि गयो॥ आए भूप तबहिं तहँ सोय । दोनौ सुतन समझावै जोय ॥१॥ जहतौ कालबली अधिकाय । जासौं जोर चलै कछु नाहि ॥
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