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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir || मिवमन्यते // 22 // ॥ीका॥ हे महा प्राज्ञ, हे बुद्धिमान व्यास, हे पिता मह, है | जगद्गुरु, तेज कारण माटे तनारा मुखथी जे वाणी नोकळे ते अम्तरुप मानुषु माटे संभळावो. // 22 // ॥श्लोक॥ ॥सुतउवाच॥ राज्ञोवचनमाकर्ण्यप्रसन्नोमनिसत्तमः वैश्यंपायनमासिनं संज्ञादष्टाददर्शह // 23 // ॥टीका // सूत पुराणिक ऋषियो प्रत्ये वोलता हवा; राजानां संदिर वचन सांभळिने मुनि सत्तम एवा जे व्यास ते प्रसन्न थइने वैशंपायन मुनिने संज्ञा करे छे. // 23 // ॥श्लोक। // वैशंपायनउवाच // श्रृणुराजन्प्रवक्ष्यामिद्येकचित्तेनभूपते // वृष्णि पांडवसंग्रामोडांगवस्यापिकारणात् // 24 // ॥टीका॥ वैशंपायनरुषि जन्मेजय राजाने संभळावे छे; हे राजन् हुं तमने संनळावं ते एक चित्तवडे करिने सांभळो, यादवने, ने पांडवने जे संग्राम थयो तेतो केवळ डांगव राजाना कारणथी थयो छे. 24 ॥श्लोक॥ पुरावैडांगवोराजाचंद्रवंशसमुद्भव : पांडवैसहितोनुनंयुद्धचक्रेसरष्णिभिः॥२५॥ ॥टीका॥ पूर्वे डांगवराजा तेतो चंद्रवंशमा उत्पन्न थयलोहतो,ते पांडवनी साथे भेगो मळिने वृष्णि जे यादवो तेनी साथे युद्ध करतो हवो. // 25 // For Private and Personal Use Only
SR No.020172
Book TitleDangvopakhyanam
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages132
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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