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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir क्ष संग. दिशा प्रति माहा पर्वतनी तरफ गति करे छे, केविरीते के मेरु समिपे जइने 20 // वारंवार प्रणाम करतोयको वाणी वदे छे. 13 ॥श्लोक // उवाचनयसंपन्नोनगराजंसडांगव : विंध्यत्वंसर्वलोकेशःपाहिमांशर।णागतं॥१४॥ टीका-भये पाकुळ व्याकुळ एवो डांगवराजा बोलतो हवो, भों विध्याचळं माझं रक्षण करो रक्षण करो हुं बहु त्रास पामिने तमारे शणे आव्योछं. 14 ॥श्लोकाविनापराधंतुरगाग्रहीयानंदनंदनःडांगवस्यवचःश्रुत्वामेरुर्वचनमब्रवीत् / // 16 // टीका-हे प्रभो मारो जराये अपराध नथी तेमछतां नंदनो पुत्र जे ऋष्ण ते मारी तुरगी लेया इच्छेछे, एवां डांगवनां वचन सांभळीने मेरुपर्वत बोलतो हवी.१८५ विंध्याचलउवाच॥ विंध्याचळ शुंबोलतो हवो ; ॥श्लोकानोऽस्माकंबलमेवेश संसारयदिजायते हरिणामथितःसिंधुःकतोमंद्रश्चदुर्बलः // 16 // टीका-हे डांगव जे वखत संग्राम थाय ते वखते क्रष्णनी साथे लडवा-मारुंबळ नथी कारण के ज्यारे एमणे सीधुं (समुद्र) मंथन कस्यो ते सनये मने दुर्बल करी नांख्यो छे. 16 लोक॥ तुरगीदेहिक्रष्णस्यनमत्वंक्रष्णपादयोः इत्येववंचनंक्षुत्वानिमग्नोदुःख / सागरे // 17 // टीका-एज हेतुनाटे हे राजन् तुं तारूं भलुं इच्छे तो एमना पादादिने नमस्कार करीने तुरगी अर्पण करय, ए प्रकारनां ज्यां डांगवे वचन | For Private and Personal Use Only
SR No.020172
Book TitleDangvopakhyanam
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages132
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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