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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ||गोषणा करो तब अग्नि रंद्रकुंढूंढना भया-तथापि इंद्र नमिला॥५६॥ नबदेव इंद्रको ढूंटने के लिये उपयु ब.क. निनामें देवनाकोंआज्ञा कर्ने भए नव वह उपश्रुनिइदर उदरचोतरफ इंद्रकी गवेषणा भयी // 57 // ऐसी परिभ्रमण क हुईदेवी मानससरोवरमै कमलपत्रकेवीचमे छिपाहुवा ऐसे भ्रमररूपिइंद्ररहना उपश्रुतिंतदादेवाभादिशनशकलब्धये।इंद्रमन्वेषयामाससोपनिरितस्लनः 57 परि भ्रमत्सिादेविमानसेचुसरोवरे॥पनपत्रात्तरेगूढ़मूरंभ्रमररुपिगम् 58 पुरंदरइतिजात्यादेवानहर्षमुपाददौरहस्पतिमुरवादेवा रोनयामासराशुनं पर ब्रह्महत्यादिन्दीनंप्यनालेनिकेतनम्।। हस्पनिरुपाचेदंशक्रदेवचरत्वया 60 युतंशचीमहीपालो नहुषोनेतुमिच्छति॥इनिवाक्यंतदाश्रुत्वागुरुमतिपुरदरः 61 है।५॥ तिनकोय हपुरंदरहै ऐसाभानके देवनायके वधामणीदई तव सहस्पनि प्रमुख सब देवता हर्षको प्राप्त होनेभयो || 7 अरु इंद्रकैपासजाने भये॥५६॥ ब्रह्महत्याकरकेपीडिन अरु कमल नालमें छिपके बैठाहे ऐसेइंद्रको टह For Private and Personal Use Only
SR No.020142
Book TitleChandrayan Vrat Katha
Original Sutra AuthorN/A
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Publication Year
Total Pages26
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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