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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५७) असंख्य पर्याय जाणे | रूजुमतिथी विपुलमति, अधिका भाव व. खाणे ॥ ७ ॥ मनना पुद्गल देखीने, अनुमाने ग्रहे साचु ॥ वितथ. पणु पामे नही, ते ज्ञाने चित्त राचुं ॥ ८ ॥ अमूर्ती भाव प्रगटपणे ए, जाणे श्री भगवंत ॥ चरण कमल नमु तेहना, विजयलक्ष्मी गुणबंत ॥ ९ ॥ इति चैत्यवंदनम् ।। ॥अथ पंचमकेवलज्ञान चैत्यवंदन ॥ ॥ श्री जिन चउनाणी थइ, शुकलध्यान अभ्यासे । अतिशय अतिशय आत्मरूप, क्षण क्षण प्रकाशे ॥ १ ॥ निद्रा म्वम जागर दशा, ते सवि दूरे होवे ॥ चोथी उजागर दशा, तेहनो अनुभव जोवे ॥ २॥ क्षपकश्रेणी आरोहिया ए, अपूर्व शक्ति संयोगे लही गुणठाणुं बारमुं, तुरीय कषाय वियोगे ॥ 3 ॥ नाण दंसण आर. रण मोह, अंतराय घनघाती । कर्म दुष्ट उच्छेदीने, थया परमातम माती ।। ४॥ दोय धर्म सवि वस्तुना, समयांतर उपयोग ॥ प्रथम विशेष पणे ग्रहे. वीजे सामान्य सयोग ॥ ५॥ सादी अनंत भांगे करी ए, दर्शन ज्ञान अनंत ॥ गुणठाणुं लही तेरमुं. भाव जिणंद जयवंत ।। ६ ।। मूल पयडिमां एक बंध, सत्ता उदये चार॥ उत्तर पयडीनो एक बंध, तिम उदय रहे बायाल ॥ ७ ॥ सत्ता पंच्यासी तणी, कर्म जेहवां रज्झु छार ॥ मन वच काया योग नास, अविचल अविकार ॥ ८ ॥ संयोगी केवली तणी ए. पामी दशाये विचरे ।। अक्षय केवलज्ञानना, विजयलक्ष्मी गुण उच्चरे ॥९॥ इति श्री केवलज्ञान चैत्यवंदनम् ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020138
Book TitleChaityavandan Stuti Stavanadi Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivnath Lumbaji
PublisherPorwal and Company
Publication Year1925
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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