________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( २०५ )
दानंद चित्कंद चिन्मूर्ति चेता ॥ महामोह भेदी अमायी अवेदी, तथा गत तथा रूप भव भय उच्छेदी ॥ १॥ निरातंक निकलंक निर्मल अबंधो, प्रभो दीनबंधो कृपानीर सिंधो ॥ सदातन सदाशिव सदा शुद्ध स्वामी, पुरातन पुरुष पुरुष वर वृषभ गामी ।। २॥ प्रकृति रहित हित वचन माया अतीत, महा प्राज्ञ मुनि यज्ञ पुरुष प्रतीत ।। दलित कर्म भर कर्म फल सिद्वि दाता, हृदय पूत अवधूत नूतन विधाता ॥ ३॥ महा ज्ञान योगी महात्मा अयोगी, महाधर्म संन्यास वर लच्छिभोगी ।। महाध्यान लीनो समुद्रो अमुद्रो, महाशांत अतिदांत मानस अरुद्रो ॥४॥ महेंद्रादि कृत सेव देवाधि देव, नमो ते अनाहुत चरण नित्य मेव ॥ नमो दर्शनातीत दर्शन समूह, त्रयी गीत वेदांत कृत अखिल उह ॥ ५॥ वचन मन अगोचर महा वाक्य वृत्ते, कृता वेद्य संवेद्य पद सुपत्ते ॥ समापत्ति आपत्ति संपत्ति भेदी, सकल पाप सुगरीठ तुं दीठ छेदी ॥ ६॥ नतूं द्रग द्रग मात्र इति वेद वादो, समापत्ति तुज दृष्टि सिद्धांत वादो ॥ विगूता विना अनुभवि सकल वादि, लखी एक सिद्धान्त घर अप्रमादी ॥ ७॥ कुमारी दयिता भोगसुख जेम न जाणे, तथा ध्यान विण तुज मुधा लोक ताणे ॥ करो कष्ट तुज कारणे बहुत खोजी, स्वयं तुं प्रकासी चिदानंद मोजी ॥ ८ ॥ रटे अटपटे झटपटें वाद ल्यावे, नित्या तुं रमे अनुभवें पास आवे ॥ महाचर न हठ योग मांहें तुं ज्युं जागे, विचारें होइ सांइ आगें जो आगें ॥ ९॥ तथा बुद्धि नहीं शुद्ध तुज जेणि वहिये, कलौनाम मांही एक थिर थोभ रहिये ।। सहस्त्रनाम मांही दप्प पण अप्प जाणुं, अणते गुणे
For Private And Personal Use Only