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( १३२)
संबंध ॥ अंतर अंतर विणु जिके, मिलीया परम ते बंधु ॥ श्री०॥ ३॥पुरूखलवइ विजया जिहां । नयरी पुंडरी किणी मांहि ॥ विचरे तिहां सहु इम कहे, पण ते नियति न पाहि ॥श्री०॥ ४॥ विजया मुज शुद्ध चेतना, भक्ति नयरी निमाधि ॥ तिहां विचरे मुज साहिबो, जिहां सुख सहज समाधि ॥श्री०॥५॥ एक तारी तोहि उपरे, में तो कीधा रे स्वामि॥ लोक प्रवाहथी जे बाहे, तेहनां न सरेरे काम ॥ श्री०॥६॥ जिण दिनथी तुम्हे चित्त वश्या, नावे अवर को दाय ॥ ज्ञान विमल सुख संपदा, अधिक अधिक हवे थाय । श्री० ७॥ इति ॥
॥ श्री सिद्धाचलजीन स्तवन । ॥ वंदना वंदना वंदनारे गीरोराजकुं सदा मेरी वंदना-ए देशी ॥
॥ गावना गावना गावना रे, गिरिराजका परम जस गावना ।। वीतरागका गीतरस गावनारे ॥ गिरि०॥ ए आंकणी ॥ अति बहुमान सुध्यान रसीले, जीन पद पद्म देखावना रे॥ गिरि० ॥१॥ प्रभु तुम छोडी अवरके द्वारे, मेरे कबहु न जावनारे॥ गिरि० ॥२॥ ज्युं चातकके जलद सलिल. विणु, सरोवर नोर न भावनारे॥ गिरि०॥३॥ ज्यु अध्यातम भाव वेदीकुं, कबहुं ओर न ध्यावनारे॥ गिरि ॥४॥ साम्य भवन मन मंडपमांहि, आय वसे प्रभु पाउनां रे ॥ गिरि०॥५॥ आदि करणके आदीश्वर जिन, शत्रुजय
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