SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (११७) दधि पार रे ॥ ४॥ विलसे अनंत नीरज उदार रे, ए भाख्या अनंता चार रे ॥ ए गुणना प्रभु तुम छ। भोगी रे, गुणठाणातीत थया अजोगी रे ॥ ५॥ त्रिकरण जोगे ध्यान तुमारूं रे, करता सारं काज अमारु रे ।। पुष्टालंबन देव तुं मारो रे, हुँ छ सेवक अवाभव तारो रे ॥ ६॥ सिंह सेन नृपवंश सुहायो रे, सुजसा राणी तुजने जायो रे ॥ उत्तम विजय विबुधनो शिष्य रे, रतनविजयनी पुरो जगीश रे ॥७॥ ॥श्री धर्मनाथनुं स्तवन ॥ ॥ कपुर हाये अति उनळो रे ॥ ए देशी ॥ धरम जिणेसर ध्याइएरे, आणी अधिक सनेह ॥ गुण गातां गिरा नमा रे, चाधे बमणो नेह ॥ १ ॥ जीणेतर पुरो अमारी आश ॥ जीम पामुं शोवपुर वास ॥ जी० ॥ ए आंकगी ॥ काल अनादि निगोदमा रे, भम्यो अनंतीवार ॥ करम नटवोये रोळव्या रे, सेवा पाप अढार ॥ जोणे ॥ २ ॥ प्राणातिपात मृषा घणुं रे, त्रीजु बदचादान | विषया रसमां माचीओ रे, गुणनिधि कीधुं दुर ध्यान ॥ नी० ॥ ३ ॥ नवविध परिग्रह मेळियो रे, कीयो क्रोष अपार ॥ मान माया लाभे करोरे, न लह्यो तत्व विचार । बी० ॥४॥रागद्वेष कलहे करी रे, दीर्धा परने आल। शुन रति अरति वली रे, जे सेवे दुःख असराल ।। मी• ॥५॥ दोखवी दीपा गुणवंतनेरे रे, कीपा माया मोष ॥ मिथ्या शल्य बोपे करी रे, कीधा अविरती पोष जो. ॥ ६ ॥ पापस्थान सेवे For Private And Personal Use Only
SR No.020138
Book TitleChaityavandan Stuti Stavanadi Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivnath Lumbaji
PublisherPorwal and Company
Publication Year1925
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy