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१०७) ॥ श्री संभवनाथनुं स्तवन ॥
॥ अष्टापद गिरिजात्रा करणकू रावण प्रतिहरी आया (अथवा) आघा आम पधारो पुज्य अमघर वहोरण वेला ॥ ए देशी॥ संभव जीनवर साहेब साचा, जे छे परम दयाल । करुणानिकि जगमाही मोटो, मोहन गुण मणीमाल ॥१॥ भवियां भाव धरीने लाल, श्रीजीन सेवा कीजे ॥ दुरमति दुर करीने लाल, नरभक सफलो कीजे ॥ ए आंकणी ॥ एह जगत गुरु जुगते सेवो, खटकाय प्रतिपाल ॥ द्रव्य भाव परिणति करो निरमल, पुजो थई उजमाल ॥ भवि० ॥२॥ केसर चंदन मृगमद भेळी, अरचे जीनवर अंग ॥ द्रव्य पूजा ते भावनुं कारण,कीजे अनुभव रंग ॥मविक ॥ ३ ॥ नाटक करतां रावण पाम्यो, तीर्थकर पद सार । देवपाल प्रमुख जीनपद ध्याता, प्रभु पद लयुं श्रीकार ॥ भवि० ॥४॥ वितराग पुजाथी आतम, परमातम पद पावे ॥ अब अक्षय मुख जीहां शाश्वतां, रुपातित स्वभावे ॥ भवि० ॥ ५॥ अजर अमर अविनाशी कहीये, पुरणानंद जे पाम्या ॥ लोका कोक स्वभाव विभासक, चउगतिना दुःख वाम्यां ॥ भवि०॥६॥ एवा जीनन
यान करता, लहीए मुख निरवाण ॥ जीन उत्तम पदने अवलंबी, रतन लहे गुण खाण ॥ भवि० ॥ ७ ॥
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