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(१०५)
॥ स्तवनोनो संग्रह ॥
श्री रत्नविजयजीकृत चोवीशी.
॥ श्री ऋषभदेवनुं स्तवन. ॥ वेण म बाईश रे विठ्ठल वारु तुजने (अथवा) भवि तुमे वंदोरे, सुरीश्वर गच्छराया ॥ ए देशी ॥ ऋषभ जीणेसर वंछित पुरण, जाणुं विशवावीश ॥ उपगारी अवनि तले मोटा, जेहनी चढती जगीश ॥ १ ॥ जग गुरु प्यारो रे पुन्य थकी में दीठो ।मोहनगारो रे सरस सुधाथी मीठो ॥ ए आंकणी ॥ नाभी नंदन नजरे नीरख्यो,परख्यो पुरण भाग्ये ॥ निरविकारी मुद्रा जेनी,दौठे अनुभव भागे ॥जग०॥२॥ आतम सुख अहेवार्नु कारण,दरशन ज्ञान चारित्र ॥ तेने भय वली मिथ्या अज्ञान, अविरती जेह विचित्र जिग०॥३।। सकल जोव छे मुखना कामी,ते सुख अक्षय मोक्ष ।। कर्म जनित सुखने दुःख रुपा, सुख ते आतम झांख ॥ जग ॥४॥ निरुपाधिक अक्षय पद केवल,अव्यावाघ ते थावे ॥ पुरणानंद दवा ने पामे, रुपातीत स्वभावे ॥ जग० ॥ ५ ॥ अंतरजामी स्वामी मारो, ध्यान रुचीमां लावे ।। जीन उत्तम पदने अवलंबी, रतनरजय गुण गावे ॥ जग० ॥६॥
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