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चिरोरुचञ्चरसटासंकटोत्कृष्टकण्ठोद्भटे संस्थिते भव्यलोकं त्वमम्बाम्बिके परमव सुतरां गजारावसन्ना शितारातिभा राजिते भासिनी हारताराबलक्षेऽमदा ॥४॥
इति चतुर्विंशतिजिनस्तुतयः सम्पुर्णाः
॥ श्री ऋषभदेवजीनी स्तुति ॥ ॥प्रह उठी वंदु, ऋषभदेव गुणवंत ॥ प्रभु बेठा सोहीये, समवसरण भगवंत ॥त्रण छत्र विराजे, चामर ढाले इंद्र ॥ जिनना गुण गावे, सुरनर नारीना बंद ॥१॥ बार परखदा बेसे, इंड इंशाणी राय ॥ नव कमल रचे सुर, जिहां ठविया प्रभु पाय ॥ देव दुदभी वाजे, कुसुम वृष्टि बहु हुँत ॥एवा जिन चोवीसे, पूजो भवि एक चित्त ॥२॥ जिनजोजन भूमी, वाणीनो विस्तार ॥ प्रभु अरथ प्रकाशे, रचना गणधर सार ॥ सो आगम सुणतां, छेदीजे गती चार ॥ जिन वचन वखाणी, लहीये भवनो पार ॥ ३ ॥ जक्ष गोमुख गीरवो, जिननी भगती करेव ॥ तिहां देवी चकेसरी, विघन कोड हरे व ॥ श्री तपगच्छ नायक,
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