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३३५ ॥ अथ समवसरणनुं स्तवन ।। ॥ एक वार गोकुल आवजो गोविंदजी ॥ ए देशी ॥
॥ एक वार वच्छ देश आवजो. जिणंद जी, एक वार वच्छदेश आवजो ॥ दरिसण नयन ठेरावजो ॥ जिणंद जी, एकवार वच्छदेश आवजो ॥ जयंतीने पाय नमावजो ॥ जि० ॥ एक०॥ वली समोवसरण देखावजो ॥ जि० ॥ एक० ॥ ए आंकणी ॥ समोवसरण शोभा जे दीपी, क्षण क्षण सांभरी आवशे ॥ जि० ॥ एक० ॥ भूतल सुगंधी जल वरसावे, फूलना पमर भरावशे || जि० ॥ एक० ॥१॥ कनक रतननो पीठ करीने, त्रिगमानी शोभा रचावशे ॥ जि. ॥ एक० ॥ रूपानो गढने कनक कोशीशां, बचें रतन जडावशे ॥ जि० ॥ एक० ॥२॥रतनगढें मणिना कोशीशां, झगमग ज्योति दीपावजो ॥जि० ॥ एक० ॥ चारे दुवारें एंशी हजारा, शिव सोपान चढावजो ॥ जि० ॥ एक०॥ ३ ॥ देव चार कर आयुद्ध धारी, छारें खडा करे चाकरी ॥ जि. ॥ एक० ॥ दूर पासथी एक समे वंदे, जरंतीने लघु छोकरी ॥ जि०॥
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