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१५४ । सकल प्रदेश स्थिरतारूप चारित्र, सिद्ध प्रभुमे कहे बुद्धजी ॥ आदर०॥२॥ एकवरसना संयमसुखमां, अनुत्तर सुरसुख थावेजी ॥ए पण व्यवहारिक नय वचन छे, क्षणमांहे श्रेणी मंडावेजी ॥ आदर०॥३॥ एक दिवसनी किरियापालक, संप्रति नरपति कीधोजी ॥हरि नृपने नवयाम क्रियाए, पांचमे अनुत्तर सीधोजी ॥ आदर० ॥४॥चार कषाय मीटे संयम होय, किरियाए महा लब्धिजी॥ दशारसिंह सत्यकीने अधोगति, जो नहीं किरिया संबंधीजी ॥ आदर० ॥५॥ अक्रियावादी दशाचूर्णीमां, कृष्णपस्वीओ जीव नयमांजी।। क्रियावादी शुक्ल पखीओ, जिन उपदेशे महिमाजी॥
आदर०॥६॥योग व्यापार नहि जोसिद्धने, तो किरियो किम व्यापेजी ॥ सघला नरमुं सार संयम छे, जिन गणधर का आपेजी ॥ आदर०॥७॥ खर जिम चंदन भार वहे बहु, तस फल भोग न थावेजी॥ दीपक सहस कर्या पण अंधथी, कुण कारज सोहावेजी। आदर०॥८॥ दशार्णभद्रने नमीआ सुरपति, जो किरियाए गुणवंताजी ॥ मुज अवदात अनेक छे जगमां, धारो भवि जयवंताजी॥ आदर० ॥९॥
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