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(१३) गुण संसार सम्मत्त कम्म सयमेव ॥ २४ ॥ खरतरगल जकारक श्रीजिनदानसूरिंद । रत्नराजमुनि सीस तेहना पद अर. विंद । रजमकरंदें सीणो ग्यानसार तसुसीस । तेण स्तव्या तेवीसदार दंझक चौवीस ॥२५॥ संवत शशि रस वारण तेम चंद निरधार । पोष मास पख ऊजल सातमनें सोमवार । श्रावक वाग्रहथी एकीनो अटपविचार । श्रम चौमासो कर जैपुर नगर मकार ॥२६॥ इति श्री चतुर्विंशतिदमकस्तवनं संपूर्ण ॥ * ॥
॥ * ॥ अथ श्री शीतलनाथ स्वामींनो स्तवनं लि०॥
मोरा साहिब हो श्री शीतलनाथ कि । वीनती सुणो इक मोरकी। मुख जांजेहो जग दीनदयाल कि । बात सुणी मैं तोरमी ॥१॥ मो० ॥ तिण तोरे हो हुँ आयो पास कि। मुक मन श्रास्या के घणी ॥ मो० ॥ कर जोमी हो कई मननी बात कि । तुं सुपिजे त्रिजुवन घणी ॥२॥ मो० ॥ हुँ नमियो हो नव समुन मकार कि । पुरक अनंता में सह्या । ते जाणे हो तुंहीज जिनराज कि । में किम जायें ते कह्या ॥३॥ मो० ॥ जाग जोगे हो तोरो श्रीनगवंत कि। दरसन नयणे निरखियो । मन मान्यो हो मोरे तुं अरिहंत कि । हियमो हे जे हरखियो ॥४॥ मो॥ एक निश्चे हो में कीधो श्राज कि । तुज विण देव बीजो नहीं। चिंतामणि हो जो पायो रतन्न कि।काच ग्रहै कहो कुण सही ॥मो॥५॥ पंचामृत हो जिण लोजन कीध कि । खल खायवा. मन किम थाये । कंठतां हो जो अमृत पीधतो । खारो जल कहो कुण
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