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( ३२४ )
वरसनो खो || मन० ॥ पूरण करि हितकार रे ॥ जग० ॥ २७ ॥ काति वदि अमावसे ॥ मन० ॥ मुगति सिधाया वीर रे || जग० ॥ सादि अनंत स्थिति सही ॥ मन० ॥ तोड्या कर्म जंजीर रे || जग० ॥ २८ ॥ कासीकोसलना राजवी ॥ मन० ॥ पोसह को सुखकार रे || जग० ॥ जाव उद्योत गयां थकां ॥ मन० ॥ रत्न मुक्या सुविचार रे || जग० ॥ २ए ॥ देव देवी याव्या घणा || मन० ॥ प्रजुनी जक्ति विशेष रे ॥ जग० || दीवाली थड़ लोकमा || मन० ॥ लह्यो गौतम ज्ञान शेष रे || जग० ॥ ३० ॥ बीजने जाइ जमानीयो ॥ मन० ॥ जगनीये जाइ बीज रे ॥ जंग० ॥ बहकरी पोषकरे || मन० ॥ गुणनाती नलहीज रे ॥ जग० ॥ ३१ ॥ ब कल्याणक वीरन ॥ मन० ॥ गाया नक्ति विशाल रे || जग० ॥ जिन कृपाचंद्रसूरि जौ ॥ मन० ॥ वर्तो मंगल माल रे ॥ जग० ॥ ३२ ॥ इति दीवाली को स्तवन संपूर्ण ॥
॥ अथ श्रीजिनकुशलसूरिजी छंद लिख्यते ॥ ॥ श्री जिन कुशलसूरि सुखकारं अद्भुतमहिमा अगम पारं । सद्बुद्धि संतां साधारं । नगर मरोट वंदे नरनारं ॥ १ ॥ त्रोटक बंद | वंदे नरनारं उन सवारं जाव पारं मनधारं, गंगोदकधारं चरणपखालं पुरक विदारं सुखकारं । घस सूकमसारं मृगमदजारं केशर कुंकुम घनसारं, परिमल पुष्कगारं गंधोदारं शुजाचारं हितकारं ॥ २ ॥ दूहा ॥ करे सेव सेवक सदा, जाव जगत धर ध्यान । हाथ जोम कनोरहे, करे विविध गुण गान ॥ ३ ॥ करि गुण गानं, धरि शुभ ध्यानं, सद् अजिमानं, मति मानं,
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