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(२६ए) पगरण नला अष्ट मंगल वृध बाल ॥ ज० ॥ वात्सट्य चौविह संघनी यथाशक्ति सुविलास ॥ ज क ॥ १२ ॥गरोधन तप करे कर्म प्रकृतिनो सार ॥ ज० ॥ सुर नर सुख अनुक्रम लही शिव रमणी जरतार ॥ न क ॥ १३ ॥ कलश ॥ जिन चंद सूरि मुणिंद खरतरगण खशशि सम युगवरा तासु वचने स्तवन कीधो नयर श्री वालूचरा। चंधानुयोग निध्येक वरषे विशद फालगुन दादशी नवकाय तत्व प्रधान गणिने अमृत गति चित नित वशी॥ १४ ॥ इति श्री कम्म पयमी स्तवनं संपूर्णम् ॥
॥ अथ श्रीशांतिनाथजीनो वृद्ध स्तवन लिख्यते ॥
॥श्रीसारद मात नमुंसिरनामी हुंगा त्रिभुवनके स्वामी। संतहि संत जपे सब कोइ । जांघर शांति सदा सुख होई॥१॥ सांति जपी ने कीजे कामा । सोइ काम दुवै अलिरामा । सांति जपी परदेश सिधावे । ते कुशले कमला ले आवे ॥२॥ गर्न थकी प्रनु मारि निवारी । शांतहि नाम दियो महतारी। जे नर शांति तणा गुण गावे । शधि अचिंति ते नर पावे ॥३॥ जा नरकुं प्रनु शांति सहाई। ता नरकुं कुल आरति नांहि । जो कबु वंजे सोही पूरे । दारिज दोष मिथ्या मत चूरे॥४॥ अलख निरंजन ज्योति प्रकासी । घट घटके नीतर प्रनुवासी। स्वामि सरूप कह्यो नवि जावे । कहितां मोमन अचरिज आवे ॥५॥ मार दिया सबही हथियारा । जीतामोह तणा दलसारा । नारितजी सिवसुं रंग राचै। राजतज्यो पिण साहिब साचे ॥६॥ महा बलवंत कही जे देवा कायर कुंथु ने एक हणेवा ।
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