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(२६३) विखसे अनिसय जास अनंत । पहिले पद नमिये अरिगंजन अरिहंत ॥ ॥ जे पनरे लेदे सिद्ध थया लगवंत । पंचमि गति पुहता अष्टकर्म करि अंत ॥ कल कल सरूपी पंचानंतक जेह । सिघना पाय प्रणमुं बीजे पदवलि एह ॥३॥ गबजार धुरं धर सुंदर शशिहर सोम । कर शारण वारना गुण उत्तीसे श्रोल॥ श्रुतजाण शिरोमण सागर जेम गंजीर । तीजे पद नमिये आचारज गुणधीर॥४॥ श्रुतधर गुण आगम सूत्र जणावे सार। तपविधि संयोगे नाखे श्ररथ विचार ॥ मुनिवर गुणयुत्ता ते कहिये जवज्झाय । चोथे पद नमिये अहनिश तेहना पाय ॥५॥ पंचाश्रवटाले पाले पंचाचार । तपसी गुण धारी वारी विषय विकार ॥ त्रस थावर पीहर लोकमांहि ते साध । त्रिविधे ते प्रण, परमारथ जिण लाध ॥६॥ अरिहरिकरि साइण माइण जूतवेताल । सब पाप पणासे विलसे मंगल माल ॥ शण समस्यां संकट दूर टले ततकाल । जंपे जिणगुण श्म सुरवर सीस रसाल ॥ ॥ इति श्रीनवकारनो बंद संपूर्ण ॥
॥ अथ श्रीबृहत् नमस्कार स्तवनं लिख्यते ॥ किंकप्पत्तरु रे अयाण चिंतामण नितरि । किं चिंतामणि कामधेनु आराहो बहुपरि ॥चित्तावेली काज किसे देसांतर लंघन । रयण रासि कारण किसे सायर जांघन ॥ चवदे पूरबसार युगे लघन ए नवकार । सयल काज महियल सरे उत्तर तरे संसार ॥१॥ केवली नासिय रीति जिके नवकार आराहै । जोगवि सुरक अनंत अंत परम पय साहै ॥ इणजाणे सुररिधि पुत्तसुह विलसे बहुपरि । इणकाणे देवलोक
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