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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२४ए) झानावरणादिक लट पमिया । जीत निशाण घूरायो रे ॥ आ० ॥ ७ ॥ केवल ज्ञान दर्शन गुण प्रगव्यो । महाराज पद पायो । शेष अघाति कर्म दीण दल उदय अबाध दिखायो रे ॥आ० ॥ ॥ सयोगीकेवली थया प्रनंजना लोकालोक जणायो । तीन कालनी त्रिविध वरतना। एक सममें उलखायो रे ॥ श्रा० ॥ ए॥ सर्व साधवीयें वंदना कीधी । गुणी विनय उपजायो । देव देवी स्तववे गुण स्तुति । जग जय पमह वजायो रे ।। आ ॥ १० ॥ सहस कन्यकाने दीदा दीधी। आस्रव सर्व तजायो । जग उपकारी देश विहारी । शुध धर्म दीपायो रे ॥ आ० ॥ ११ ॥ कारण योगे कारज साधे । तेह चतुर गाजे । आतम साधन निरमल साधे । परमानंद पाइजे रे ॥ आ० ॥ १२ ॥ एह अधिकार कह्यो गुणरागे । वैरागे मन नावी । वसुदेवहिंग तणे अनुसारे मुनि गुण नावना नावी रे ॥ आप ॥ १३ ॥ मुनि गुण थुणतां नाव विशुषे लाव विखेद न थावे । पूर्णानंद इहांथी उससे । साधन शक्ति जमावे रे ॥ आ० ॥ १४ ॥ मुनि गुण गावो नावना नावो । ध्यावो सहज समाधि । रत्नत्रयी एकत्वे खेलो । मेटी उपाधि अनादि रे॥आ० ॥१५॥राजसार पाठक उपगारी । ज्ञान धर्म दातारी । दीपचंड पाठक खरतरवर देवचंड सुखकारी रे॥आ० ॥१६॥ नयर लीबमी माहे रहीने । वाचयमस्तुति गाइ । आतम रसीक श्रोता जन मनने साधन रुचि उपजाइ रे ॥आ॥१७॥ इम उत्तम गुण माला गावो । पावो हर्षे वधाइ । जैन धर्म मारगरुचि करतां मंगल लील सदाइ रे ॥ आ॥ १० ॥ इति For Private And Personal Use Only
SR No.020135
Book TitleBruhat Stavanavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrachin Pustakoddhar Fund
PublisherPrachin Pustakoddhar Fund
Publication Year1920
Total Pages345
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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