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(२५६) लो॥ अहो ॥ सी० ॥ ॥ लोग संग कारमा कह्या । जिनराज सदारे लो॥ अहो जि०॥राग देष संगे वधे नत्र भ्रमण सदारे लो ॥ अहो ज० ॥७॥राजसुता कहे साचए । जे जाखो वाणीरे लो॥ अहो जे० ॥ पण ए नूल अनादिनी किम जाए बंमागीरे लो॥ अहो कि० ॥ ए॥ जेह तजे तेह धन्य
। सेवक जिन जीनारे लो॥ अहो से ॥ अमे तस पुद्गल रस रम्या । मोहे लय लीनारे लो ॥ अहो मो० ॥१०॥ अध्या तम रस पानथी । पीना मुनिरायारे लो ॥ अहो पी० ॥ ते पर परिणति रती तजी। निजतत्त्व समायारे लो ॥ अहो नि ॥ ११॥ श्रमने पण करवो घटे । कारण संयोगेरे लो ॥ अहो का० ॥ पण चेतनता परिणमे जम पुद्गल जोगेरे लो ॥ अहो ज० ॥ १२ ॥ अवर कन्या पण ऊच्चरे । चिंतित हवे कीजेरे लो॥ अहो चि ॥ पनी परम पद साधवा । उद्यम साधी जे रखो ॥ अहो न ॥ १३ ॥ प्रनंजना कहे हे सखी । एकायर प्राणीरे लो ॥ अहो ए० ॥ धर्म प्रथम करवो सदा । देव चंजनी वाणीरे लो ॥ अहो दे ॥ १५ ॥
॥ ढाल २ जी ॥ कहे साहुणी सुण कन्यका रे । धन्या ए संसार कलेश । एहने जे हितकरी घणे रे । धन्या ते मिथ्या
आदेश रे । सुज्ञानी कन्या शांचल हित उपदेश । जग हितकारी जिनेश ने रे कहे ॥ कीजे तसु आदेश रे ॥ सुझाए ॥१॥ सा ॥ खरमीनें वली धोयतुं रे कः ॥ तेह न शिष्टाचार । रतन त्रयी साधन करो रे ॥ क० ॥ मोहा धीनता वार रे ॥ सु० ॥ सा ॥२॥ जेह पुरुष वरवा तणी रे क० ॥
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