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( २३३ )
दृष्टि न चूके जेह || स० || प्रणमे नित्य प्रत्ये जावसुं । देवचंद मुनि तेह || स० ॥ ० ॥ ११ ॥ इति सप्तम वचन गुप्ति सजाय संपूर्ण ॥
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॥ अथाष्टम काय गुप्ति सझाय लिख्यते ॥ फूलना चोसर प्रभुजीने शिर चढे ॥ एदेशी ॥ गुप्ति संजारो रे त्रीजी मुनिवरु | जेहश्री परम आनंदो जी ॥ मोह टले घन घाति परगले । प्रगटे ज्ञान अमंदो जी ॥ गु० ॥ १ ॥ करीय शुभ अशुभ नवजे जे बे । तिए तजि तन व्यापारो जी ॥ चंचल जाव ते श्राश्नव मूल बे । जीव अचल विकारो जी ॥ गु० ॥ २ ॥ इंद्रिय विषय सकलनुं धार ए । बंधहेतु दृढ एहो जी ॥ अनिव कर्म ग्रहे तनु योगथी । तिए थिर करीयें देहो जी ॥ गु० ॥ ३ ॥ श्रतम वीर्य फुरे परसंग जे । ते कही यें तनुयोगो जी ॥ चेतन सत्ता रे परम योगी ने । निर्मल स्थिर उपयोगो जी ॥ गु० ॥ ४ ॥ जावत कंपन तावत बंध वे ।
जगव अंगेजी । ते माटे ध्रुव तत्वरसें रमे । माहण ध्यान प्रसंगे जी ॥ गु० ॥ ५ ॥ वीर्य सहायी रे आतम धर्मनो अचल सहज प्रयासो जी ॥ ते परजाव सहाया किम करे । मुनिवर गुण आवासो जी ॥ गु० ॥ ६ ॥ खंति मुक्ति युक्ति - किंचनी । शौच ब्रह्मधर धीरो जी ॥ विषय परिसह सैन्य विदारवा । वीर परम शौमीरो जी ॥ गु० ॥ ७ ॥ कर्म पल दल क्ष्य करवारसी । तम शद्धि समृद्धो जी ॥ देवचंद्र जिन आणा पालतां । वंडुं गुरु गुणवृद्धो जी ॥ गु० ॥ ८ ॥ इति कायगुप्ति सजाय संपूर्ण ॥
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