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(२३३) ॥ अथ सप्तमवचनगुप्ति सज्झाय लिख्यते ॥ समिति सदा ए दीलमें धरो ॥ एदेशी ॥ अथवा ॥ हमी रियानी देशी ॥ वचनगुप्ति सूधी धरो। वचन ते कर्म सहाय सलूणे ॥ उदयाश्रित जे चेतना निश्चे तेह अपाय ॥ स० ॥ वचन गुप्ति सूधी धरो ॥१॥ ए आंकण। ॥ वचन अगोचर यातमा । सिद्ध ते वचनातीत ॥ स ॥१॥ सत्ता अस्ति स्वजावमें । नाषक नाव अनीत ॥ स० ॥ व० ॥२॥अनुलव रस आस्वादता । करता बातम ध्यान ॥ स० ॥ वचन ते बाधक नाव । न वदे मुनि अज्ञान ॥ स ॥व० ॥३॥ वचनाव पलटायवा । मुनि साधे स्वाध्याय ॥ स० ॥ तेह सर्वथा गोपवो । परम महारस थाय ॥ स ॥ व० ॥४॥ भाषा पुजल वर्गणा । ग्रहणा निसर्ग उपाधि ॥ स० ॥ करवा श्रातम वीर्यने । शाने प्रेरे साधि ॥ स० ॥ व० ॥ ५॥ यावत् वीरज चेतना । आतमगुण संपत्त ॥ स ॥ तावत सरवे निजेरो । आश्रव पर श्रायत्त ॥ स ॥ व०॥६॥इम जाण। स्थिर संयमी । न करे वलि पलीमंथ ॥ स० ॥ आत्मानंद आराधतां । आज्ञार्थी निग्रंथ ॥ स० ॥ व० ॥ ॥ साध्य शुद्ध परमातमा । तसु साधन उत्सर्ग ॥स॥वार नेदें तप विविधे। सकल श्रेष्ट व्युत्सर्ग ॥ स० ॥ व० ॥ ॥ समकित गुण गणे कस्यो । साध्य अयोगी नाव ॥ स० ॥ उपादानता तेहनी। गुप्तिरूप स्थिर नाव ॥ स० ॥ व ॥ ए॥ गुप्ति रुचि गुप्ते रम्या । कारण समिति प्रपंच ॥ स० ॥ करता स्थिरता हिता। प्रहे तत्व गुण संच ॥ स० ॥व० ॥१०॥ अपवादे उत्सर्गनी।
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