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(१२७) संगी तेह ॥ तिण परसन मुख नवि करे जी। आतमरति वती जेह ॥ म० ॥ स० ॥॥ काय योग पुद्गल ग्रहे जी । एह न श्रातम धर्म । जाणंग करता जोगता जी । हुँ माहरो ए मर्म।। म० ॥ स ॥३॥ श्रनलिसंधि चलवीर्यनो जी । रोधक शक्ति अनाव ॥ पण अभिसंधि जे वीर्यथी जी । केम ग्रहे परलाव ॥ म ॥स ॥४॥इम परत्यागी संवरी जी। न ग्रहे पुद्गल खंध ॥ साधक कारण राखवा जी। अशना दिक संबंध ॥ म०॥ स० ॥ ५॥ आतमतत्त्व अनंतता जी। ज्ञान विना न जणाय । तेह प्रगट करवा लणी जी । श्रुत सद्याय उपाय ॥ म॥ स ॥६॥ तेह देहथी देहरहे जी ।आहारें बलवान ॥ साध्य अधूरे हेतुने जी। केम तजे गुणवान ॥ म०॥ स० ॥ ७ ॥ तनु अनुयायी वीर्यनो जी।वर्तन अशन संजोग॥ वृद्ध यष्टि सम जाणीने जी। अशनादिक उपनोग । म ॥ स० ॥७॥ज्यां साधकता नवि अमें जी।तो न ग्रहे श्राहार ।। बाधक परिणति वारवा जी । अशनादिक उपचार ॥ म० ॥ सम् ॥ ए॥ सुमतालीशे व्यना जी। दोष तजी नीराग ।। असंत्रांत मूळ विना जी । नमर परें वस जाग ॥ म० ॥स० ॥ १० ॥ तत्त्व रुचि तत्त्वाश्रयी जी। तत्त्वरसी निर्गथ ॥ कर्म उदयें आहारता जी । मुनि माने पलिमंथ ॥ म० ॥ सप ॥११॥ लाल थकी पण घन लहे जी । अति निर्जरा करत ॥ पाम्ये अणव्यापकपणे जी। निर्मल संत महंत ॥ म स० ॥ ॥ १२ ॥ अणाहारता साधता जी। समता अमृतकंद ॥ नितु
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