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(१२५) धरंत । यदि गुप्ति जो न रहिशके । तो समिति विचरंत ॥४॥ गुप्ति एक संबर मयी। औरंगिक परिणाम ॥ संवर निर्जर समितिथी। अपवादे गुण धाम ॥५॥त्रव्ये अव्यत चरणता नावे नाव चरित्त ॥ जावदृष्टि व्यत क्रिया । करतां शिव संपत्त ॥६॥ आतमगुण प्राग्नावथी। जे साधक परिणाम । समिति गुप्ति ते जिन कहे । साध्यसिद्धि शिवगम ॥७॥ निश्चय करण रूचिथइ । समिति गुप्तिधर साधि ॥ परम अहिं. सक नावथी । आराधे निरुपाधि ॥ ॥ परम महोदय साधवा । जेह श्रया उजमाल ॥ श्रमण निनु माहण यति । गाउं तस गुणमाल ॥ ए॥
॥ अथ प्रथमईया समिति सझाय लिख्यते ॥ प्रथम गोवाल तणे नवें जी ॥ एदेशी ॥ प्रथम अहिंसक व्रत तणी जी। उत्तम नावना एह ॥ संवर कारण उपदिशी जी। समतारसगुण गेह ।। मुनीश्वर । यो समिति संजार ॥ आश्रव कर तनुयोगथी जी । मुष्ट चपलता वार ॥ मुनी०
र्या ॥ ए आंकणी ॥ १॥ कायगुप्ति उत्सर्गनो जी। प्रथम समिति अपवाद ॥ या ते जे चालवू जी । धरि आगम विधिवाद ॥ मु० ॥ ॥॥ ज्ञान ध्यान सकायमे जी । स्थिर बेग मुनिराज ॥ शाने चपल पणुं करे जी ॥ अनुलव रस सुखराज ॥ मु० ॥ ॥३॥ मुनि उठे वसहीथकी जी। पामी कारण चार ॥ जिनवंदन ग्रामांतरे जी । के आहार निहार ॥ मुनि ॥ ॥ ४ ॥ परम चरण संवर धरूं जी। सर्व जाण जिन दिक ॥ शुचि समतारुचि ऊपजे जी । तिणे
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