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(१२) अक्षा श्रावे । सम संवेगादिक पावे । विना यह ग्यान नही किरिया । जैन दरशनसें सब तिरिया ॥ दोहा ॥ साखी ॥ ज्ञान पदारथ सातमें । पदमें आतम राम । रमता रम्य अध्या. तमें । निजपद साधे काम । देखता वस्तु जगत सारी ॥ जग ॥३॥ जोगकी महिमा बहु जाण । चक्रधर गेमी सब राणी यतिदश धरम करी सोहे । मुनि श्रावक सव मन मोहे ॥हा॥ साखी ॥ करम निकाचित कापवा । तप कुठार करध्याय । क्षमायुत नवमा पदधरे । कर्म मूल कटजाय । जजो तुम नवपद सुखकारी ॥ जग ॥४॥ श्रीसिम्पचक्र जजो जाई ।
आचामल तप विधिसें थाई । पाप त्रिहुँ जोगे परिहरजो। जाव श्रीपाल परे करजो । उहा ॥ साखी ॥ संवत जगणीस सतर समें । जेपुर श्रीजिन पास । चैत्र धवल पूनिम दिने । सफल फली मुझ आस । बालकहे नवपद नवि प्यारी ॥ जग० ॥ ५॥ इतिश्री नवपदजीनी लावणी संपूर्णा ॥ ॥अथ श्री नेमनाथजीकी चतुरमासक लावणी लिख्यते॥
॥ गई घटा गगनमें कारि राजुलकुं विरह मुख नारी ॥ बा०॥ चौमासा लग्या रस निना। अलि अषाढ रंग महीना। च्यालं तरफसे वादल पीना । बिजलिने चमकणा कीना । दिख होत धमकता सीना । में अबला सखी पतिहीना । उमावनी॥ सररररर चलत समीर । थररररर करत सरीर । मररररर मरत समीर । अलि केसी करुं तदबीर बुरी तकदीर । पीया विन प्यारी । राजुलकू० ॥१॥ श्रावण में श्याम घनघोर । जरजोर बोलते मोर । दाउर मिल करते दोर पिउ पिउ पप
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