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( १७२ )
गणी सीस | सूत्र रागी जो जैतसी ॥ ७ ॥ सा० ॥ इति श्री सत्तमाध्ययन सजाय संपूर्णम् ॥
॥ अथाष्टमाध्ययन सझाय लिख्यते ॥ ॥ जिनवर गणधर मुनिवरनें कहेरे । हिंसा टालीनें दया पालरे । जू जूवा जीव जांणी उक्कायनारे | पग पग जया करतो चालरे ॥ जिन० ॥ १ ॥ टाले सूक्ष्म आठ विराधनारे | बोमी मदमत्सर परमादरे । तप जप खप करी काया सुखवी रे । जीते इंद्रिय विषय सवादरे || २ || जिन० || जरा न करे देहा जाजरीरे न वधे रोग पीमा घटमाहिरे | इंडीहीए पके नहीं जांलगरे तां लगि धरम करमनो उत्साहरे || ३ || जिन० ॥ क्रोधे वैर वढे घटे प्रीतकी रे । माने विघटे विनय आचार रे । माया वासर ने गमे रे । लोने विसे सदु संसार रे ॥ ४ ॥ जिन ० ॥ ज्योतिष निमित्त सुहना फल कहे रे। मंत्र तंत्र जागा जूमा देइरे | कांमण मण षध केलवे रे । किम तरस्येंने तारस्ये केमरे ॥ ९ ॥ जिन० ॥ चीत जीत न जोवे नारी चीतरी रे | वाले लोचन रवि जिम तेज रे । हीली खीली वली सो वरसनी रे । तिहां पण व्रतधर न करे हेजरे ॥ ६ ॥ जिन० ॥ कुकमी aan करे बिल की रे । मरे ब्रह्मचारि नारी शुं तेम रे । सिणगार सोना पटरस खायवोरे। तालपुट जहर हलाहल जेमरे ॥ ७ ॥ जिन० ॥ वसही सयणा सण पाय पूरणो जी । पहिलेही लेग्यो सेवा जोगरे । धन धन मुनि ते चंद सूहरु समारे । लहे सुख इह लोगरे ॥ ७ ॥ जिन० ॥ श्रचार पणही नाम मेरे । श्रवमे सखरा आचार रे । सिद्धांतरी साखे नाखे
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