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(१३४) पुन्य सागर कहे खरतर एह आराहो मुदा ॥ २१॥ इति पंच कल्याणक स्तवनं ॥
॥ नेमनाथ लावणी ॥ नेमकी जान वणी नारी देखन कुं आवै नर नारी ॥ (ए अखणी) अनंता घोमा उर हाथी । मनखकी किणती नही आती ॥ ऊंउपर धजा जो फरराती धमकसें फरती पर राती (दोहा-) समुजविजयका लामला नेम जनोंका नाम ॥ राजुल देकुं
आया परणवा उग्रसेन घर गम ॥ प्रसन नइ नगरी सब सारी ॥ नेमकी ॥१॥ कसुंबल वागा अतिवारी काने कुंमल बवि है न्यारी ॥ किलंगी तुररा सुख कारी मालगले मोतियनकी मारी ॥ ( मुहा- ) काने कुंमल जगमगे शीश मुगट फल कार ॥ कोमिः नानुकी करु उपमा शोना अधिक अपार ॥ वाज रह्या वाजा टंक सारी ॥ नेमकी ॥२॥ लूट रही उनकी बरराइ व्याहमें आये वझे नाई ।। फरोखे राजुल दे आई जान कुं देखी सुख पाश् ॥ (हा-साबी)। उग्रसेनजी देखके मनमें करे विचार ॥ बहोत जीव करि एका वामो जरयो अपार ॥ करी सव नोजनकी त्यारी ॥ नेमकी ॥ ३ ॥ नेमजी तोरण पर आये पशु जीव सवही कुरलाये ॥ नेमजी वचन फुरमाये पशु जीव काहेकुं लाये ॥(उहा-साखी) याको लोजन होवासी जान वासते एह ॥ एह वचन सुणी नेमजी थर थर कांपे देह ॥ नावसें चढगये गिरनारि ॥ नेमकी ॥४॥ पीसें राजुख देवाइ हाथ अब पकड्यो दिन मांही ॥ कहां तुं जावै मेरी जाई जैर वर हेरं मुकता ॥
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