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( १२४ )
वेदना अति आकरी ए ॥ ८ ॥ कहे मुक्ति वीर जीणंदरे । कीम समे वेदना | धर्मे मुक्ति जस लदे || | ||
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॥ दोहा ॥ रत्नप्रना पहिली कहि । सकरप्रजा तुं जाए । बालुक प्रजा त्रीजी सुखी । सांजखो चतुर सुजाण ॥ १ ॥ चोथी पंक प्रजा सुणो । धुम प्रजा पांचमी जेह । तम प्रजा बही कही । तमः तमा सातमी तेह ॥ २ ॥
॥ द्वितीय ढाल ॥ मनरुं मारुं मोकलुं मारा वाला जीरे । काल अनंत वेदना गुणवंता जीरे । घणुं शुं जाएं एह, सुगुण नर सांजल गुणवंता जीरे। शोर बकोर नारकी करे ॥ गु० ॥ केवली जाणे तेह || सु० गु० ॥ १ ॥ पंदर भेदना देवता ॥ गु० ॥ वेदना उपजावे प्रचंम ॥ सु० गु० ॥ खंको खंग ते प्राणना ॥ गु० ॥ ऊपर मुजर दंग || सु० गु० ॥ २ ॥ एहवा शब्द कुण सांजले ॥ गु० ॥ एक सांजले श्रीजीनराज ॥ सु० गु० ॥ पाप करोने प्राणीयो ॥ गु० ॥ जइ बेसे नारकी पाज | सु० गु० ॥ ३ ॥ कर्कश जाषा बोलता | गु० ॥ पर्ण कुवर्ण तुं जाण ॥ सु० गु० ॥ मांहो मांहे सांजले ॥ गु० ॥ सहे जली दुःखनी खाए || सु० गु० ॥ ४ ॥ शीतल जोनीये उपजे ॥ गु० ॥ रहेतां तेज गम ॥ ० ॥ ० ॥ रुधिर मांस चामकां ॥ गु० ॥ बे तस घोर धार ॥ सु० गु० ॥ ५ ॥ कीच जक्षणकी करे ॥ गु० ॥ घ नरकमां दुःख || सु० गु० ॥ मननी वात मनमां रहे || गु० ॥ परवश नारकी न सुख ॥ सु० गु० ॥ ६ ॥ दीवस नवि सूजे तेहने || गु० ॥ परमाधामी उजा जेह ॥ सु० गु० ॥ नासी ने जाय कहां ॥ गु० ॥ एवो थानक नहि जेह ॥ सु० गु०
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