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(१०)
॥अथ मान की सझाय ॥ रे जीव मान न कीजिये । माने विनय न आवेरे । विनय विना विद्या नहीं । तो किम समकित पावरे ॥ १॥ रे ॥ समकित विन चारित्र नहीं । चारित्र विण नहीं मुक्तिरे । मुक्तिना सुख ने सास्वता।ते किम लहीये जुक्तिरे ॥२॥ रे॥ विनय वमो संसारमा । जगमांहें अधिकारीरे । मानें गुण जाये गली प्राणी जो ज्यो विचारी रे ॥३॥मान कियो जो रावणे। ते तोरामें माखोरे । पुरयोधन गरबे करी। अंते सब ते हास्योरे॥रे ॥४॥ सूका लाकमा सारीखो। मुखदाई ए खोटोरे ।उदय रतन कहै माननें । देज्यो देसवटोरे ॥ रे०॥५॥ इति मानकी सहाय
॥अथ मायाकी सझाय ॥ समकितनो मूल जाणीये जी । सत्य वचन साख्यात । साचामें समकित वसें जी। मायामां मिथ्यात रे । प्रांणी मकरिस माया लगार ॥१॥ मुख मीठगे कूठे मनेंजी । कूम कपटनो कोट । जीनेंतो जी जी करेजी । चितमां ताके चोटरे ॥ प्रांग ॥२॥
आप गरजें आघो पके जी । पिण न धरे विसवास । मनसुं राखे आंतरेजी । ए मायानो पासरे ॥ प्रां० ॥ ३ ॥ जेसुं बांधी प्रीतमी जी । तेसुं रहे प्रतिकूल । मयल न में मन तणो जी। ए मायानो मूलरे ॥ प्रांग ॥४॥ तप कीधो माया करी जी। मित्रसुं राख्योरे जेद । मविजिनेसर जाणजो जी। तो पाम्या स्त्री वेदरे ॥ प्रां० ॥ ५॥ उदय रतन कहै सांजलो जी। मेलो मायानी वुध। मुगति पुरी जावा तणो जी। ए मारग शुघरे । ॥ प्रां० ॥६॥ इति मायाकी सकाय ॥
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