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(११७) अलसी कोषव ागर्ने ज्वार । साते वरसें अचित्त विचार । शीत ताप वर्षादिक जोय । सचित्त जोनि अचित्त ते होय ॥ १३॥ हरमे पीपर मिरच विदाम। खारक प्राख एला अजिराम । जोयण शत जल वटमां वहे । साठि जोयण श्रलमांहें रहे ॥ १५ ॥ सचित्त वस्तु प्रवहणनी जेह । थाई अचित्त प्रवचन कहै एह । धूम अगनि परीया पणे करी । अचित्त योनि तस थाये खरी ॥ १५ ॥ बार पहूर रहे ऊगली राब । सोल पहुर राईतां अजाब । कमाह विगय परि सेक्यो धांन । पहिर चौवीस गोमूत्रनुं मांन ॥१६॥ अति खारं घृत कालातिल । पलटाई वर्णादिक रील । काचो दूध रहे बहुवार । एह अन्नद कहै मुनिसार ॥ १७ ॥ ढुंढणीयादिक विदलनी दाल । सेक्या धांन परें तस काल । च्यार पडुर सीरो लापसी । विदख परते प्रवचनवसी ॥ १७ ॥ प्रथम दिवस प्रारंजी गिएयो । काल प्रमाण सवि केहनोलण्यो चलित रस जेहनो जिहां थाय । तिहां ते वस्तु अनद कहिवाय ॥१५॥ धवलो सेंधव कह्यो अचित्त । श्राप विधे अख्यरां प्रतीत । ए कालादिक उहरां जे थाय । तेह अचित्त थापना न थाय ॥ २० ॥ गीतारयनें वयणे जोय । आचीरण अना चीरण होय आई धांन अंकुर नीकले । तब ते वस्तु अजदमां जिले ॥१॥ गेरू मणसिल लवण हरियाल । आवे जलवट मांहि रसाल । तेह अचित्त हो। प्रवचन साखि । पिण लेवानी नहीं तसु नाखि ॥२२॥ श्म बोस्यो जब देश विचार । विस्तार प्रवचनसारोधार । धीर विमल पंमित सुपसाय कवि।
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