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(११०) काल अनादि संसारमें । जन्म मरण तणाःखरे । ते लहे धर्म पाया विना । तप विना किम दुवे सुखरे ॥ त्रिम् ॥ १० ॥ हिव लह्यो नरजव पुन्यथी । वलि लह्यो श्रीजिन धर्मरे । तत्वनी रुचि यश हे मुके । हिव मिव्यो मन तणो नमरे ॥त्रि ॥ ११॥ नव जव एक जिनराजनो । सरण हो ज्यो सुख काररे । कुगुरु कुदेव कुधर्मनो । मैं कियो हिवे परिहारर ॥त्रि ॥ १५ ॥ दर्शन झान चारित्र ए । मोद मारग सुविशालरे । जव लव जे मुझ संपजे । तो फल मंगल माल रे ॥ त्रि॥१३॥ श्रीजिन शाशन तप कह्यो, ते तप सुरतरू कंद रे । धनधन जेनर अदरै, काटे ते कर्मनो फंद रे॥त्रि॥१४॥ (कलश)॥ श्म नाजिनंदन जगत वंदन सकल जन आनंद नो, में श्रूण्यो धन दिन आजनो मुझ मात मरूदेवीनंदनो ॥ संवत सुने त्राकासनिधि शशि नयर श्रीवाखूचरै, श्रीजिनसौलाग्य सूरिंदके सुपसाय विजयविमल वरै ॥ १५ ॥ इति श्रीबार माशी तपस्तवनं संपूर्ण ॥
॥ अथ श्रीसम्यक्त्वनी सझाय ॥ ॥ सरसर कमल न नीपजे वन वन चंदन न होय ॥ घर घर संपदा न पांमिए जन जन पंमित न होय ॥१॥तिम समकित धर श्रोमला समकीत वीना शीवदूर ॥ जव्यजनो तुमे सांजलो जपे जिनचंसूर ति० ५ ॥ गीरवर गीरवर गज नही पवस पवल न प्राशाद ति० ॥ कुसुम कुसुम परिमल नही फल फल मधुर न स्वाद ति ॥ ३ ॥ पुरुष सर्व सूरा नही सर्व सुलदाणी न नार ॥ मावंत सब मुनि नही सत्यवादी दोय चार
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