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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७४************************** भव्यजनकण्ठाभरणम् सज्जातिगार्हस्थ्यतपोधनत्वस्वाराज्यसाम्राज्यजिनत्वसिद्धिः । स्थानानि लोके परमाणि सप्त क्रमेण सदृष्टिरुपैत्यवश्यम् ।। २०५ . अर्थ- सजाति, सद्गृहस्थपना, तपोधनपना, स्वर्गका राज्य अर्थात् इन्द्रपद, साम्राज्य, अर्हन्तपद और मोक्षपद लोकमें ये सात स्थान उत्कृष्ट माने गये हैं। इन सप्त परमस्थानोंको सम्यग्दृष्टि क्रमसे अवश्य पाता है । २०५ ॥ इन सात परमस्थानोंका स्वरूप------ सज्जातिरत्राशुभशिल्पविद्यासन्त्यक्तवृत्तौ सति जन्म वंशे । दिव्ये शिवानन्दनिदानदानदीक्षोचिते तीर्थकरादियोग्ये ।। २०६ ॥ __ अर्थ- जिस कुलमें बढ़ईगिरी, लुहारी, गाना बजाना आदि कर्मोसे आजीविका नहीं की जाती, अत एव जो मोक्षसुखके कारणभूत मुनिदान और मुनिदीक्षाके योग्य है, तथा जिसमें तीर्थङ्कर आदि महापुरुष जन्म ले सकते हैं, ऐसे दिव्य वंशमें जन्म लेने का नाम सज्जातित्व है ॥ २०६ ॥ ' सदर्शनाचारवदान्यतार्थसौरूप्यशूरत्वकलादिशस्या । सागारता सान्द्रतराच्छकीर्तिसञ्छादिताशा भुवि सद्गृहित्यम् ॥२०७ __ अर्थ-- सम्यग्दर्शन सम्यक् आचार, दानशीलता, सुन्दरता, शूरवीरता और कला आदि गुणोंसे प्रशंसनीय गृहस्थ होना और अपनी अति गम्भीर निर्मल कीर्तिसे दिशाओंको ढाक देना, इसीका नाम सद्गृहस्थपना है ॥ २०७ ।। सदापि सन्यस्तसमस्तसङ्गा सद्दर्शनज्ञानतपश्चरित्रा । परिस्फुरन्ती मुनितास्ति पारिवाज्यं यशोव्यातसमस्तविश्वा ।। २०८ अर्थ-- जीवन पर्यन्तके लिये समस्त परिग्रहको छोड़कर और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तपको धारण For Private And Personal Use Only
SR No.020127
Book TitleBhavyajan Kanthabharanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhaddas, Kailaschandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages104
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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