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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भव्यजनकण्ठाभरणम् *** ************************* स्याल्लोकमूढं सिकताश्मराशिः स्नानं नदीसिन्धुषु वह्निपातः । सन्ध्यारवीन्दुद्रुमशैलगोभूसद्माग्नियानायुधरत्नसेवा ॥ १८३ ॥ अब लोक-मूढताका स्वरूप कहते हैं-- अर्थ- धर्म समझकर वालु और पत्थरोंके ढेरको पूजना, नदी और समुद्रमें स्नान करना, आगमें कूदना, सन्ध्या, सूर्य, चन्द्र, वृक्ष, पहाड़, गाय, भूमि, मकान, आग, सवारी, शस्त्र और रत्नोंकी पूजा करना लोकमूढ़ता है ॥ १८३ ॥ ___ अब देवमूहताका स्वरूप कहते हैंतद्देवमूढं यदिहाञ्चतीति वराभिलाषैर्विमतिर्वराकः । रागादिदोषावसथानि देवानशेषवित्त्यादिगुणैरयुक्तान् ॥ १८४ ॥ अर्थ- वरकी अभिलाषासे अज्ञानी मूढलोग यहांपर जो सर्वज्ञता आदि गुणोंसे रहित और रागादि-दोषोंसे भरे हुए देवोंकी पूजा करते हैं उसे देवमूढता कहते हैं ॥ १८४ ॥ ___ अब गुरुमूढताका स्वरूप कहते हैंपापण्डिमूढं भवकारणं स्यात्पापण्डिनां सद्विविधोपधीनाम् । प्राणीन्द्रियासयगिनां च मिथ्याटरज्ञानचारित्रवतामुपास्तिः ।। १८५।। अर्थ-- अन्तरंग और बाह्य परिग्रहसे सहित, ग्राणि-संयम और इन्द्रियसंयमसे रहित, तथा मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रके धारी साधुओंकी उपासना करना गुरुमूढ़ता है। यह मूढ़ता संसारका कारण है ॥ १८५ ॥ अब आठ मदोंको कहते हैं-- सम्भावयन्नप्रतिमैस्तपोधीसम्पदलार्चाकुलजातिरूपैः । स्वोत्कर्षमन्यस्य सधर्मणो वा कुर्वन्प्रधर्ष प्रदुनोति दृष्टिम् ।।१८६॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020127
Book TitleBhavyajan Kanthabharanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhaddas, Kailaschandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages104
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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