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भव्यजनकण्ठाभरणमें समन्तभद्रके रत्नकरण्डका प्रभाव स्पष्ट है। उसका सम्यग्दर्शनवर्णन तो रत्नकरण्डकाही ऋणी है।
समय यतः कविवरने अपनी तीनोंही रचनाओंके अन्तमें पं. आशाधरजीका उल्लेख किया है और आशाधरजीने वि. सं. १३०० में अपने अनगार धर्मामृतकी टीका पूर्ण की थी, अतः यह तो स्पष्टही है कि इससे पहले अर्हद्दास नहीं हुए। किन्तु प्रश्न यह है कि वे आशाधरके समकालीन थे या उनके पश्चात् हुए हैं ? क्यों कि उन्होने अपने ग्रन्थोंमें जिस ढंगसे आशाधरका उल्लेख किया है उससे यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि वह आशाधरके समकालीन थे। उनके उल्लेख इस प्रकार हैं
मुनिसुव्रत काव्यका अन्तिम पद्य इस प्रकार हैमिध्यात्वकर्मपटलैश्विरमावृते मे युग्मे दृशोः कुपथयाननिदानभूते । आशाधरोक्तिलसदञ्जनसम्प्रयोगैः स्वच्छीकृते पृथुलसत्पथमाश्रितोऽस्मि ।।
अर्थात्- मेरे नयन-युगल चिरकालसे मिथ्यात्वकर्मके पटलसे ढके हुये थे और मुझे कुमार्गमें लेजानेमें कारण थे। आशाधरकी उक्ति रूप उत्तम अंजनसे उनके स्वच्छ होनेपर मैंने जिनेन्द्रदेवके महान् सत्पथका आश्रय लिया।
पुरुदेवचम्पूका अन्तिम पद्य है'मिध्यात्वपंककलुषे मम मानसेऽस्मिन् आशाधरोक्तिकतकप्रसरैः प्रसन्ने। जल्लासितेन शरदा पुरुदेवभक्त्या तथंपुदभजलजेन समुज्जजृम्भे ॥'
अर्थात्- मेरा यह मानसरूपसरोवर मिथ्यात्वरूपी कीचडसे
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