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३६ ************************** भव्यजनकण्ठाभरणम्
सका । अतः सभी दिक्पाल अधम हैं ।
भावार्थ- हिन्दू धर्ममें आठ दिशाओंके आठ दिक्पाल माने गये हैं, पूर्व दिशाका इन्द्र, अग्नेय कोणका अग्नि, दक्षिण दिशाका यम नैर्ऋत्यकोणका नैर्ऋत, पश्चिमदिशाका वरुण, वायव्यकोणका वायु, उत्तरदिशाका कुबेर और ईशान कोणका ईश । इन सब देवताओंकी पूजा होती है । इसीसे ग्रंथकारने इनका स्वरूप बतलाते हुए इन्हें अपूज्य ठहराया है ॥ ९७-९८ ॥
__प्रत्येक दिशाका एक एक ग्रह होता है । अतः ग्रहोंकोभी अपूज्य ठहराते हुए ग्रन्थकार प्रत्येक ग्रहका कथन करते हैं
लोकं तपन्नुद्धतदन्तपक्क्तिः स्वस्यापि सूतस्य न पाददायी । मन्देहरुद्धात्मगतिश्च राहोरुच्छिष्टमेषोऽस्तमुपैति भास्वान् ॥ ९९ ।।
अर्थ-- लोकको ताप देनेवाला, वीरभद्रने जिसकी दन्तपंक्ति तोड दी है, और जिसके सारथि अरुणके पैरभी नहीं हैं, मन्देह नामके राक्षसके द्वारा जिसकी गति रोकी जाती है, और जो राहुके द्वारा असा जाकर राहुके मुखकी जूठन है ऐसा यह सूर्य प्रतिदिन अस्त होता है ।। ९९ ॥
अनाथनारीव्यथनैनसा किं नाजः कलक्याकलिताहिदंशः । अत्त्तुं सुरैश्चिछन्नतनुर्भवत्या दोषाकरः श्वेततनुः क्षयी च ॥ १० ॥
अर्थ- अनाथा स्त्रीको कष्ट पहुंचाने के पापसे क्या चन्द्र राहुसे प्रस्त और कलंकी नहीं हुआ ? तथा देवता चन्द्रमाका पान करते हैं अतः उसका शरीर खण्डित होता है, प्रतिदिन उसकी एक एक कला घटती जाती है, वह क्षयी तथा दोषोंका घर है अथवा
१ ल, आत्तं
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