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भव्यजनकण्ठाभरणम् ★★★
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शवा भवन्ती मृताङ्गिसत्वाः श्मशानमेषां पचनस्थली हि । ततो ध्रुवं मांसभुजः शवादास्तदीयगेहं नियतं श्मशानम् ॥९०॥
अर्थ - लोक में मरे हुए प्राणियोंके कलेवरको शव [ मुर्दा ] कहते हैं और जहां ये शव जलाये जाते हैं उसे श्मशान कहते हैं। अतः जो मांस खाते हैं वे नियमसे शवभक्षी [ मुर्दोंको खानेवाले ] हैं और उनका घर 'जहां उन शवोंको पकाया जाता है' नियमसे श्मशान है ॥ ९० ॥
मांसं भवेत्प्राणितनुस्तथैव भवेन्न वा प्राणितनुस्तु मांसम् । निम्बो. भवेद्भूमिरुहो यथैव भवेन्न वा भूमिरुहस्तु निम्बः ||११|| अथ स प्राणियोंका शरीर है किन्तु जो प्राणीका शरीर है वह सब मांस नहीं है । जैसे नीम वृक्ष होता है किन्तु प्रत्येक वृक्ष नीम नहीं होता || ९१ ॥
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जीवाङ्गभावे सदृशेऽपि सेव्यं स्यादन्नमेवार्यजनैर्न मांसम् । स्यादङ्गात्वे सदृशेऽपि सेव्या जायैव लोकैर्जननी तु नैव ॥ ९२ ॥
अर्थ - शायद कोई कहें कि अन्नभी तो जीवका शरीर है अतः जब अन्न खाते हैं तो मांस क्यों न खावें ? किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि यद्यपि अन्नभी जीवका शरीर है और मांसभी जीवका शरीर है, फिरभी आर्यपुरुषोंको अन्नही खाना चाहिये, मांस नहीं । जैसे माता भी स्त्री है और पत्नीभी स्त्री है, किन्तु लोग पत्नीकोही भोगते हैं, माताको नहीं ॥ ९२ ॥
शुक्रार्त्तवत्थं खलु धातुपं सश्लेष्मपित्तं सहमूत्रविष्टम् । निगोद सवैर्निचितं च मांसं सस्यं तु नेहक् तदिदं हि भोज्यम् ॥ ९३
१ ल. हि २ ल. धातुरूपं ३ ल. मूत्रपिष्टम् ।
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