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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भव्यजनकण्ठाभरणम *********************** ३१ है; ' नमो जिनाय ' जिन भगवान्को नमस्कार हो इस वाक्यका प्रथम अक्षर जो 'न' वह पांच बार उच्चारनेपरभी 'नमो जिनाय' ऐसा वाक्योच्चार करनेसे जो प्रयोजन सिद्ध होता है उसे सिद्ध नहीं करता है ।। ८२ ॥ दिशेन्न च स्थावरजातघातस्त्रसैकजीवाहतिजन्यमंहः । दिशत्यनेकाहहिमप्रवृष्टिर्दिने किमेकत्र जलं च वृष्टेः ॥ ८३ ॥ ___ अर्थ- बहुतसे स्थावर ( एकेन्द्रिय ) जीवोंका घात एक त्रस जीवके घातसे होनेवाले पापकी बराबरी नहीं कर सकता । क्या अनेक दिनों तक पडनेवाली ओस एक दिनमें हुई जलकी वर्षाकी बराबरी कर सकती है ? अतः पश्चेन्द्रिय जीवकी हिंसामें बहुत पाप है ।।८३॥ दानादिना स्थावरजातघातं शुष्यत्यघं सूक्ष्ममिहातपेन । नीहारवारीव नितान पभ्रवारीव नैव त्रसघातवान्तम् ॥८४॥ ____अर्थ- स्था' जीवोंके घातसे होनेवाला सूक्ष्म पाप दान वगैरहके देनेसे उसी प्रकार बिल्कुल सूख जाता है जैसे सूर्यके तापसे ओसका जल . किन्तु त्रसजीवोंके घातसे होने वाला पाप मेघोंके जलकी तरह नहीं सूखता ॥ ८४ ॥ सुराः सुधां स्वःसुलभा शुचिं च स्वादुं च पथ्यां परिहत्य मांसम् । इच्छन्ति चेच्छ्रेष्ठमिदं सुधाया मांसाशिनोऽमी सुरतोऽधिसौख्याः॥८५ ____ अर्थ- स्वर्गकी सुलभ, खादिष्ट और हितकर पवित्र सुधा [अमृत ] को छोडकर यदि देवगण मांसको पसन्द करते हैं तब तो मांस अमृतसेभी श्रेष्ठ हुआ और मांस खानेवाले जीव देवोंसेभी अधिक सुखी कहलायें ॥ ८५ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020127
Book TitleBhavyajan Kanthabharanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhaddas, Kailaschandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages104
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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