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- प्रस्तावना -
'मावश्यक है।
कविवर अर्हदास का भव्यकण्ठाभरण सचमुचमें भव्य जीवोंके द्वारा कण्ठमें आभरण रूपसेही धारण करने के योग्य है । दो सौ बयालीस पद्य-मणियोंसे प्रथित इस कण्ठाभरणमें आभरणकारने देव, शास्त्र, गुरु और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र का स्वरूप निबद्ध किया है। और एक मुमुक्षु भव्यको इन छहोंका यथार्थ स्वरूप हृदयंगम करना अत्यावश्यक है।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको यद्यपि रत्नत्रय कहा जाता है क्योंकि इन तीनोंकी पूर्णताही मोक्षका कारण है, किन्तु इन तीनोंमेंभी सम्यग्दर्शनही प्रधान है। क्योंकि सम्यग्दर्शनके विना सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रका होना उसी तरह असंभव है, जैसे बीजके अभावमें वृक्षका होना। तथा यद्यपि देव, शास्त्र और गुरु इन तीनोंकेही यथार्थ श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहा है, फिर भी इन तीनोंमेंभी देवही प्रधान है। क्योंकि देव अथवा आप्तकी वाणीही शास्त्र है, और उसके मार्गपर चलनेवालेही गुरु हो सकते हैं। अतः ग्रन्थकारने अपने इस लघुकाय ग्रन्थमें देव और सम्यग्दर्शनका विस्तारसे वर्णन किया है तथा इन दोनोंमेंभी देवके स्वरूपके वर्णनकोही मुख्यता दी है जो उचित ही है।
ग्रन्थ-परिचय और शैली प्रथमही सात पद्योंके द्वारा पञ्चपरमेष्ठी, जिनागम और गौतम आदि जिनयोगियोंका स्तवन करके ग्रन्थकारने भव्यकण्ठाभरणके निर्माणकी प्रतिज्ञा की है । तत्पश्चात एकही पद्यके द्वारा प्रन्थमें वर्ण्य
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