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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८४*************************भव्य लनकम वाले पापके अंशको श्रीजिनेन्द्रदेवके द्वारा कही गई शुद्धिसे अर्थात् प्रायश्चित्त विधानसे और पक्ष आदिसे दूर करते हैं । भावार्थ- पूजन, दान, स्वाध्याय, तप और संयम ये पांच श्रावकके कर्तव्य हैं। परन्तु इन पांचोंही कार्योंका पालन न्यायपूर्वक आजीविकाके विना नहीं होता। और आजीविकाके साधन जो कृषि आदि कार्य हैं, वे हिंसा आदि पापोंसे अछूते नहीं हैं। इस लिये पूजा, दान, तप, संयम और स्वाध्यायको करनेके लिये गृहस्थको खेती, व्यापार आदि आरम्भोंमें लगनेवाले पापको जिनेन्द्र भगबान्के द्वारा कहे हुए प्रायश्चित्तसे अथवा पक्ष, चर्या और साधनरूप श्रावक धर्मके पालनसे दूर करना चाहिये। मैं धर्मके लिये, देवताके लिये, मंत्रसिद्ध करनेके लिये, औषधके लिये और आहार आदिके लिये कभीभी संकल्पपूर्वक त्रसजीवोंका घात नहीं करूंगा इस प्रकार प्रतिज्ञा करके संपूर्ण त्रसजीवोंकी संकल्पी हिंसाके त्यागके साथ साथ स्थूल झूठ, स्थूल चोरी आदि पापोंके त्यागको पक्ष कहते हैं। और धीरे धीरे परिणामोंमें वैराग्यकी वृद्धि होने पर कृषि आदि कामोंमें लगे हुए पापोंको प्रायश्चित्तके द्वारा दूर करके, अपने घरबारका सब भार अपने उत्तराधिकारीको सौंपकर घर छोड़ देनेको चर्या कहते हैं । तथा मरणसमय उपस्थित होने पर चारों प्रकारके आहार, मन, वचन, कायसम्बन्धी चेष्टा और शरीरसे ममत्वको त्यागकर निर्मल ध्यानके द्वारा अपने रागादिदोषोंके दूर करनेको साधन कहते हैं ॥२३९ ॥ त एव मान्या भुवि धार्मिकौघा धर्मानुरक्ताखिलभव्यलोकैः । सुधानुरक्ता ह्यनुरागमूतिमाधारपानेष्वपि तन्वतेऽस्याः ।। २४० ।। For Private And Personal Use Only
SR No.020127
Book TitleBhavyajan Kanthabharanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhaddas, Kailaschandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages104
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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