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प्रस्तावना
किसी भी देश की संस्कृति का मूल्य उसके प्राचीन शिल्पस्थापत्य और साहित्य पर से प्रांका जाता है। विद्या और कला देश का अनमोल धन है। शिल्पस्थापत्य मानव जीवन का अत्यन्त मार्मिक अंग है । कला, हृदय और चक्षु दोनों को आकर्षित करती है, शिल्पसौन्दर्य हृदय को सभर बनाता है । सारी दुनिया में भारतीय शिल्पस्थापत्य उत्तम कोटि का है, देश के लिये गौरवरूप है।
शिल्पस्थापत्य धर्म के साथ संलग्न है, उसका देवोपासना से बहुत गहरा सम्बन्ध है। प्राचीन ऋषिमुनियों ने बुद्धिपूर्वक इसकी रचना की है। धर्मप्रवृत्ति से प्रेरणा पाकर देश में जगह जगह पर मन्दिरों का निर्माण हुआ है, उसीके द्वारा शिल्पीवर्ग को अच्छा उत्तेजन-प्रोत्साहन मिला है। प्राचीन युग में शिल्पी, ब्रह्मा के पुत्र माने जाते थे और उसी भावना से उनका सम्मान भी होता था।
विद्या और कला के विषय में शुक्राचार्य ने बहुत ही स्पष्ट लिखा है कि विद्या अनन्त हैं, कलाओं की तो गिनती ही नहीं हो सकती फिर भी सामान्य रूप से यह कहा जाता है कि विद्याएँ बत्तीस हैं और कलाएँ चौसठ प्रकार की हैं। आगे चलकर विद्या और कला की व्याख्या करते हए उन्होंने कहा कि वाणी के द्वारा जो व्यक्त होती है वह विद्या और गँगा भी जिसे व्यक्त कर सकता है वह कला। शिल्प, नत्य, चित्र आदि कलाएँ हैं, क्योंकि ये बिना वाणी के माध्यम के केवल मूकभाव से भी व्यक्त की जा सकती है।
प्रभुप्राप्ति अथवा मोक्षप्राप्ति के लिये उपासक लोग देवमूर्ति की पूजा करते हैं। भारत के प्रत्येक संप्रदाय में प्रायः मूर्तिपूजा प्रधान है।प्रासाद देवमूर्ति-प्रतिमा के लिये आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है। मूर्तिपूजा के प्रारम्भिक काल के विषय में विद्वानों में मतभेद भले ही हों, वेदों में मूर्तिविषयक उल्लेख मिलते हैं। हिन्दुधर्म में मूर्ति का प्राधान्य है। उपासना-ध्यान के लिये मूर्ति अवलम्बरूप मानी गई है। मूर्तिपूजा का प्रचार जैसे जैसे बढ़ता गया वैसे वैसे प्रतिमाविषयक मान-प्रमाण, अंग-प्रत्यंग, आसन, मुद्राएँ, आभूषण, आयुध, प्रतिमावर्ण
आदि के नियम बन गये। इस प्रकार प्रतिमाविधान का विकास होता गया और उस विषय का पूरा साहित्य निर्माण होता गया। वह प्रमाणमान मान्य रखने का शिल्पियों को आदेश दिया गया, बताये गये नियम कानून बन गये । उसमें कहीं कुरूपताआ जाये अथवा किसी नियम का भंग हो जाये तो उसे 'वेधदोष' कहा गया, और उससे यजमान का अकल्याण होगा, ऐसा भय भी शास्त्रकारों ने बताया।
___ वास्तुशास्त्र अथर्ववेद का उपवेद है । अथर्ववेद के सूक्तों में स्थापत्यकला के बारे में विशेष उल्लेख मिलते हैं । वेद-संहिता, ब्राह्मणग्रन्थों, उपनिषदों, बौद्धसाहित्य एवं जैन आगम ग्रन्थों में वास्तुविद्याविषयक विधान मिलता है। पुराणों और नीतिशास्त्रों के ग्रन्थों में तो इस विषय के पूरे अध्याय के अध्याय मिलते हैं।
भारतीय शिल्पस्थापत्य के विविध अंग हैं। वास्तुशास्त्रविषयक प्राचीन संस्कृत साहित्य प्रायः मध्ययुग में लिखा गया है। उसके पहले भी कुछ प्राचार्यों ने इस विषय में अवश्य कुछ ग्रन्थ लिखें होंगे, पर वे आज उपलब्ध नहीं हैं। उनमें से ऋषिमुनियों ने कहीं कहीं कुछ अवतरण उद्धृत किये मिलते हैं। नवीं-दशवीं शताब्दी के बाद और बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में इस विषय पर लिखे ग्रन्थ ही वर्तमानकाल में विशेष रूप से देखने को मिलते हैं।
वास्तुशास्त्र और मूर्तिकला का क्रमिक विकास हुआ है। वैदिक काल में मूर्तियों के प्रमाण की चर्चा अवश्य हुई है, लेकिन उस समय की मूर्तियों के अवशेष उपलब्ध नहीं है।
शिल्पस्थापत्य भारतीय विद्याओं का विशिष्ट अंग है। उपास्य देव की मूर्ति के विधान सम्बन्धी कुछ अंगउपांगों का यहाँ वर्णन करने का प्रयास किया जा रहा है। शिल्पस्थापत्य के क्रियात्मक ज्ञान का विशेष महत्त्व है, इस दृष्टि से उसके अंगप्रत्यंगों का ब्योरेवार यदि निरूपण किया जाय तो भविष्य में वह उपयोगी सिद्ध होगा, ऐसा सोचकर उसके कुछ विभागों के प्रकरण यहाँ पेश किये हैं। 'प्रतिमाविधान' विचार के पूर्वार्ध में पन्द्रह अंग क्रमबद्ध निम्नानुसार हैं।
१. मूर्तिपूजा २. प्रतिना मान-प्रमाण : तालमान
१०. षोडशाभरण (अलंकार) ३. प्रतिमा का वर्ण और उसका वास्तुद्रव्य
११. आयुध ४. हस्तमुद्रायें
१२. परिकर ५. पादमुद्रा और आसन
१३. व्याल स्वरूप पीठिका
१४. देवानुचर, असुरादि अकोनविंशती स्वरूप ७. शरीर मुद्रा
१५. देवांगना स्वरूप ८. बाहन
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